पुण्यतिथि विशेष: किताबों की गुलामी से नफरत करते थे गुरुदेव
पुण्यतिथि विशेष: किताबों की गुलामी से नफरत करते थे गुरुदेव
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विश्वविख्यात कवि, साहित्यकार और दार्शनिक गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर शिक्षा को ‘जीवन के अपूर्व अनुभव के स्थाई हिस्से’ के बतौर देखते थे, उनका कहना था, “शिक्षा छात्रों की संज्ञानात्मक अनभिज्ञता के रोग का उपचार करने वाले तकलीफ़देह अस्पताल की तरह नहीं है, बल्कि यह उनके स्वास्थ्य की एक क्रिया है, उनके मस्तिष्क के चेतना की एक सहज अभिव्यक्ति है. 

वे मानते थे कि हमारी शिक्षा ने हमें प्रकृति और सामाजिक संदर्भ दोनों से दूर कर दिया है, यह निर्जीव और मूल्यविहीन हो गई है, उन्होंने पाया कि शिक्षा को बच्चों के लिए और ज़्यादा अर्थपूर्ण बनाने के लिए पहला क़दम बच्चे को प्रकृति के संपर्क में लाना होगा. यह शिक्षा को मात्रा और गुणवत्ता में नैसर्गिक बनाकर हासिल किया जा सकता है, प्रकृति के साथ संपर्क से बच्चा विशाल दुनिया की वास्तविकता, निरंतरता और ख़ुशी से परिचित होगा. 

हालांकि टैगोर ख़ास अर्थ में शिक्षाविद् नहीं है क्योंकि उन्होंने शिक्षा के बारे में नहीं लिखा, लेकिन शिक्षा के प्रति उनके दृष्टिकोण की झलक उनकी कविताओं, गद्य और निबंधों में मिलती है. वे शिक्षा  को महत्व देते थे, लेकिन किताबों की ग़ुलामी से उन्हें नफरत थी, बच्चों के संदर्भ में वह स्वतंत्र, मुक्त गतिविधि और उनके स्वास्थ्य व शारीरिक विकास के लिए खेल के हिमायती थे. उनका मानना था कि अगर बच्चों का मन पढ़ाई में न लगे तो भी उन्हें खेलने का पूर्ण समय मिलना चाहिए, क्योंकि वे मानते थे कि प्रकृति से अच्छा शिक्षक और कोई नहीं है. आज ले इस भागते दौड़ते और असमय बूढ़े होते युग को टैगोर की शिक्षा प्रणाली पर चलने की आवश्यकता है. 

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