माँ को स्नान करवाने के लिए आदि शंकराचार्य ने मोड़ दी थी नदी की दिशा
माँ को स्नान करवाने के लिए आदि शंकराचार्य ने मोड़ दी थी नदी की दिशा
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आप सभी को बता दें कि 9 मई को आदि शंकराचार्य जयंती है. ऐसे में आज हम आपको उनसे जुडी वह कथा बताने जा रहे हैं जिसमे उन्होंने अपनी माँ के स्नान के लिए नदी की दिशा ही मोड़ दी थी. आइए जानते हैं कथा.

कथा- एक दिन शंकराचार्य ने अपनी मां से संन्‍यास लेने की बात कही. एक मात्र पुत्र के संन्‍यासी बनने पर वह सहमत नहीं हुई. इसके बाद शंकराचार्यजी ने उनसे नारद मुनि के संन्‍यास जीवन में प्रवेश लेने की घटना का उदाहरण दिया कि किस तरह से वह संन्‍यासी बनने चाहते थे लेकिन उनकी मां ने आज्ञा नहीं दी. एक दिन सर्पदंश से उनकी मां का देहावसान हो गया. इसके बाद परिस्थितियों के चलते नारद मुनि संन्‍यासी बन गए. इसपर विशिष्‍टा देवी को काफी दु:ख हुआ.

लेकिन शंकराचार्य ने कहा कि उनपर तो सदैव ही मातृछाया रहेगी. साथ ही उन्‍होंने अपनी मां को यह वचन दिया कि वह जीवन के अंतिम समय में उनके ही साथ रहेंगे. साथ ही उनका दाह-संस्‍कार भी स्‍वयं ही करेंगे. इस तरह उन्‍हें संन्‍यासी बनने की आज्ञा मिली और वह संन्‍यासी जीवन में आगे बढ़ गए. एक अन्‍य कथा मिलती है कि एक बार नदी में मगरमच्‍छ ने उनके पांव पकड़ लिए. इसपर उन्‍होंने अपनी मां से कहा कि मुझे संन्‍यासी जीवन में प्रवेश करने की आज्ञा दीजिए तभी यह मेरे पैर छोड़ेगा. बेटे के प्राण संकट में जानकर मां ने संन्यास की आज्ञा दे दी. मगरमच्छ ने शंकराचार्य के पैर छोड़ दिए.मां को दिए वचन के मुताबिक जब शंकराचार्य को अपनी मां के अंतिम समय का आभास हुआ तो वह अपने गांव पहुंच गए.

मां ने उन्‍हें देखकर अंतिम सांस ली. इसके बाद जब दाह-संस्‍कार की बात आई तो सभी ने उनका यह कहकर विरोध किया कि वह तो संन्‍यासी हैं और वह ऐसा नहीं कर सकते. इसपर शंकराचार्य ने कहा कि उन्‍होंने जब अपनी मां को वचन दिया था तब वह संन्‍यासी नहीं थे. सभी के विरोध करने के बाद भी उन्‍होंने अपनी मां का दाह-संस्‍कार किया. लेकिन किसी ने उनका साथ नहीं दिया. शंकराचार्य ने घर के सामने ही मां की चिता सजाई और अंतिम क्रिया की. इसके बाद यह पंरपरा ही बन गई.

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