हिन्दू धर्म के ये दो ग्रन्थ जिनके बारे में जानकर आप भी हो जायेंगे हैरान
हिन्दू धर्म के ये दो ग्रन्थ जिनके बारे में जानकर आप भी हो जायेंगे हैरान
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हर धर्म की अपनी अलग मान्यता है और हर धर्म की लिए अपने-अपने ग्रन्थ बहुत महत्वपूर्ण होते है ऐसे ही हिन्दू ग्रन्थ की बात करे तो भगवान श्रीराम के जीवन चरित्र से जुड़ी अनेकों बातों को संस्कृत भाषा में महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित 'रामायण' और गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा अवधी भाषा में रचित 'श्रीरामचरितमानस' में दर्शाया गया है इसलिए ये दोनों ग्रंथों को श्रेष्ठ माना जाता है. इन दोनो धार्मिक ग्रंथों में सबसे प्रमाणिक 'रामायण' को माना गया है. लेकिन इन दोनों ग्रंथों का अध्ययन करें तो पाएंगे कि इनमें भगवान श्रीराम की पत्नी सीता जी के बारे में बहुत सी रोचक, और भावपूर्ण बातों को बताया गया है. 

वाल्मीकि रामायण में यह वर्णन मिलता है कि, 'जब  भगवान श्री राजा जनक यज्ञ की भूमि तैयार करने के लिए उस भूमि को हल से जोत रहे थे, उसी समय उन्हें भूमि से एक कन्या प्राप्त हुई. हल के नुकीले हिस्से को सीत कहते हैं. इससे टकराने पर सीता जी मिलीं इसलिए उनका नाम सीता रखा गया. सीता जी पृथ्वी से प्रगट हुई थी.

गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस में उल्लेख है कि भगवान श्रीराम ने सीता जी के स्वयंवर में शिव धनुष को उठाया और प्रत्यंचा चढ़ाते समय वह टूट गया, जबकि वाल्मीकि रामायण में सीताजी के स्वयंवर का वर्णन नहीं है.

शास्त्र में वर्णित है कि मार्गशीर्ष (अगहन) मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी को श्रीराम और सीता का विवाह हुआ था. प्रत्येक वर्ष इस तिथि पर श्रीराम-सीता के विवाह, जिसे विवाह पंचमी के पर्व रूप में  मनाया जाता है. यह प्रसंग श्रीरामचरित मानस में मिलता है.

श्रीरामचरित मानस में वर्णित है कि वनवास के दौरान श्रीराम के पीछे-पीछे सीता चलती थीं। चलते समय सीता इस बात का विशेष ध्यान रखती थीं कि भूल से भी उनका पैर श्रीराम के चरण चिह्नों (पैरों के निशान) पर न रखा जाएं. श्रीराम के चरण चिह्नों के बीच-बीच में पैर रखती हुई सीताजी चलती थीं.

जिस दिन रावण सीता का हरण कर अपनी अशोक वाटिका में लाया. उसी रात भगवान ब्रह्मा के कहने पर देवराज इंद्र माता सीता के लिए खीर लेकर आए, पहले देवराज ने अशोक वाटिका में उपस्थित सभी राक्षसों को मोहित कर सुला दिया. उसके बाद माता सीता को खीर अर्पित की. जिसके खाने से सीता जी की भूख-प्यास शांत हो गई. ये प्रसंग वाल्मीकि रामायण में मिलता है जबकि श्रीरामचरितमानस में नहीं है.

 

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