कानूनी बिसात पर क्यों है इतने बादशाह
कानूनी बिसात पर क्यों है इतने बादशाह
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कोई असहाय पीड़ा से गुजरते हुए काल के गाल में क्यों न समा जाए और वो भी किसी दुसरे के कारण पर हमें तो सियासत का पीच क्रिकेट की मैदान में सजाने में सुख मिलता है, एक-दुसरे पर लांछन लगाने में, गलतियां गिनाने में और कुर्सी पर बैठकर अपने जुते साफ कराने में सुख मिलता है। आज बात भारत के कानून की है, लेकिन उससे पहले आपको बताऊंगी कानून बनाए जाने की प्रक्रिया को......कुल 200 लोगो की निगाहों से गुजरने के बाद कोई कानून बनता है। इसके बाद भी अगर एक शब्द भी गलत हुआ तो उस पर फिर से संसद में बहस होती है और अगले सत्र का इंतजार करना होता है।

संबंधित ऑफिसर, डिप्टी सेक्रेटरी, संबंधित मंत्रालय, कानून मंत्रालय, कैबिनेट सचिव और अंततः विधेयक संसद में पहुंचता है, जहां इस पर बहस होती है और यदि इसके बाद दोनो सदनों से पारित हुआ तो राष्ट्रपति के पास साइन होने के लिए जाता है, इसके बाद बनता है कानून। यह भी कोई परेशानी नही है, यदि सभी अपना काम निष्पक्ष और इमानदारी से करें। फिलहाल मुझे जो लगता है वो यह है कि हमारी संवैधानिक व्यवस्था हमें चौराहे पर खड़ी होकर मुंह चिढ़ा रही है, देश को एक बड़ी ओपन हार्ट सर्जरी की जरुरत है।

देश के पूर्व अटॉर्नी जनरल हरीश साल्वे का कहना है कि हमारे पास योग्य वकीलों की कमी है। मुझे एक घटना याद है, जिसमें बलात्कार करने के बाद एक नेता का बेटा आराम से बरी होता है और कोर्ट में अपनी प्रैक्टिस जारी रखता है और आज वो बहुत नामी वकील है। जनता की नजर में नेता कानून बनाते है तभी तो हम उन्हें लॉ मेकर कहते है। कोर्ट इन दिनों पॉलिथीन पर बैन लगाने, बेटियों को संपति में हक दिलाने, गंगा की सफाई, मंदिरों में पूजा-अर्चना लायक कपड़े पहनाने और प्रदूषण की रोकथाम में व्यस्त है। जैसे अचानक आसमान से कचरे की बारिश हुई हो। नेता का काम कोर्ट करेगा का तो कोर्ट का काम कौन करेगा?

आज निर्भया ही नही, इससे पहले भी दादर का अखलाक, दाउद इब्राहिम, याकूब मेमन, छोटा राजन, अजमल कसाब और एक 24 महीने की बच्ची भी है, जो बलात्कार का शिकार हुई थी। सरकार गुनहगारों को पहले तो पकड़ नही पाई और गुनहगारों को पकड़ भी लिया तो क्या। उल्टे सरकार उन पर खर्च कर उन्हें पाल रही है। निर्भया केस में नाबालिग को बरी किए जाने के मामले में जब दिल्ली हाइ कोर्ट में सुनवाई शुरु हुई तो कोर्ट ने खुद स्वीकारा कि नाबालिग को रिहा न किए जाने के लिए जितने भी तर्क है, वो सही है पर हम मजबूर है। कोई कानून नही है, जिसके तहत रिहाई को रोकें।

नेता आंटी आई तो सारा दोष राज्यसभा के मत्थे मढ़ कर चलती बनी। 125 करोड़ जनता राज्यसभा या लोकसभा को वोट तो देती नही फिर उन्हें क्या पता कि सरकार के क्या पचड़े है। इसे वो सुलझाएं हम उन पर रोजाना करोड़ो खर्च करते है, तो आउटपुट की उम्मीद तो कर ही सकते है।

वर्तमान समय बताता है कि कानून इंसानों के लिए नही बल्कि इंसान कानून के हाथों पीसने के लिए जन्मा है। किसी के जीवनकाल में एक धब्बा अगर कानून का लग जाए तो जीवनभर कोई नौकरी नही, विदेश यात्रा नही। पर नेता अंकल बिंदास घूम भी सकते है और बीड़ा लगाकर नेता गिरी भी कर सकते है। भारत की आबादी के मन में एक सवाल तो जरुर आया होगा कि सासंदों और विधायकों के वेतन में 400 प्रतिशत की वृद्धि पर कैसे सहमति बन जाती है, बिना किसी लोकसभा और राज्यसभा के पचड़े के। बचपन में एक गाना सुना था ये अंधा कानून है.... यकीन अब हो गया।

'रीता राय सागर'

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