दत्तात्रेय शीघ्र कृपा करने वाले देव हैं
दत्तात्रेय शीघ्र कृपा करने वाले देव हैं
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भगवान दत्तात्रेय स्वयं विष्णु के अवतार हैं। उनका कार्य है पालन करना, लोगों में भक्ति की लगन जगाना तथा आदर्श तथा आनंदमयी जीवन व्यतीत करने की सीख देना। इस अर्थ में वे संपूर्ण मानव जाति के गुरु हैं।इस वर्ष दत्त जयंती 25 दिसंबर यानी शुक्रवार के दिन है।

मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा को दत्त जयंती मनाई जाती है। दत्तात्रेय शीघ्र कृपा करने वाले देव हैं। भक्त वत्सल दत्तात्रेय, भक्त के स्मरण करते ही उसके पास पहुंच जाते हैं, इसीलिए इन्हें 'स्मृतिगामी' तथा 'स्मृतिमात्रानुगन्ता' भी कहा गया है। अत्रि ऋषि की पत्नी माता अनुसूया के पतिव्रता धर्म से प्रसन्न होकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों देवों ने उन्हें मनचाहा वर मांगने को कहा।

ऋषि अत्रि और अनुसूया ने तीनों देवों से बाल रूप में उनके पास ही रहने का वर मांगा। तब ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, शंकर के अंश से दुर्वासा तथा विष्णु के अंश से दत्तात्रेय का जन्म हुआ। चूंकि अगहन पूर्णिमा का प्रदोषकाल दत्तात्रेय भगवान की आविर्भाव की तिथि थी इसलिए इस दिन को 'दत्तात्रेय जयंती' मनाई जाती है।

दत्तात्रेय में ईश्वर और गुरु दोनों रूप समाहित हैं और इसलिए उन्हें 'परब्रह्ममूर्ति सदगुरु' और 'श्री गुरुदेवदत्त' भी कहा जाता है। शैव और वैष्णव दोनों ही मतों को मानने वाले श्री दत्तात्रेय भगवान को पूजते हैं।

दत्त अर्थात 'मैं आत्मा हूं' की अनुभूति देनेवाला! प्रत्येक मनुष्य में आत्मा का वास है इसलिए प्रत्येक मनुष्य तमाम तरह की गतिविधियों में सक्रिय रहता है। दत्त का स्मरण करते हुए हम पाते हैं कि हमारे अंदर भगवान का ही वास है। उनके बिना हम अपने अस्तित्व की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। हर मनुष्य की आत्मा में भगवान का वास है, हमें इसकी प्रतीति आने पर ही, हम सभी से प्रेमपूर्वक आचरण कर सकेंगे। दत्त जयंती हमें इसी बात का ध्यान दिलाती है।

दत्तात्रेय भगवान का रूप अवधूत भी है। अवधूत यानी जो अहं को खत्म करता है। कई बार हम खुद पर अभिमान करते हैं। व्यक्ति जब खुद पर अभिमान करने लगता है तो उसके पुण्य क्षीण होने लगते हैं। उसके भीतर करुणा का स्रोत सूखने लगता है। दत्तात्रेय का स्वरूप मनुष्य को इस बात की स्मृति कराता है कि अहं को परे रखकर दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार करना है।

भगवान दत्त को दिगंबर भी कहते हैं। दिक् अर्थात दिशा। दिशा ही जिनका अंबर है ऐसे देव। अर्थात जो स्वयं सर्वव्यापी हैं, अर्थात जो सभी दिशाओं में व्याप्त हैं, वही दिगंबर हैं! ऐसे देव जो चहुंओर व्याप्त हैं उनकी शरण में जाकर हम उनकी कृपा पा सकते हैं। अपने सारे कष्टों का समाधान पा सकते हैं।

किससे क्या सीखा भगवान दत्तात्रेय ने

जब यदु ने दत्तात्रेय से पूछा कि उन्होंने इतना ज्ञान कैसे पाया तो भगवान दत्तात्रेय ने उन्हें बताया कि मैंने हर किसी से ज्ञान प्राप्त किया है। दत्तात्रेय बोले- मां पृथ्वी मेरी पहली गुरु है। उन्होंने मुझे बताया कि मुझे लोग रौंदते हैं, तरह-तरह के उत्पात करते हैं। फिर भी मैं रोती-चीखती नहीं, उनसे बदला नहीं लेती।

बल्कि उन्हें वह सबकुछ देती हूं, जो उनके लिए आवश्यक है। धीर साधु पुरुष को चाहिए कि वह लोगों की मजबूरी को समझे, न क्रोध करे और न ही अपना धैर्य छोड़े। वृक्षों और पर्वतों की सभी चेष्टाएं दूसरों के हित में लगी रहती हैं। हमें उनकी शिष्यता स्वीकार कर उनसे परोपकार की शिक्षा लेना चाहिए।'

पवन भी मेरे गुरु हैं। वह अनवरत चलते रहते हैं। फूल, कांटा, पवित्र, अपवित्र सबको समान रूप से स्पर्श करते हैं। सबको ताजगी प्रदान करते हैं, बिना किसी से आसक्त हुए। उनसे मैंने बिना किसी से आसक्त हुए या घृणा किए, बिना ईर्ष्या, भेदभाव के सबको ताजगी प्रदान करना सीखा। शरीर के अन्दर रहने वाली प्राण वायु के रूप में उन्होंने सिखाया कि आवश्यकता के अनुसार ही वस्तुओं को ग्रहण करें, इन्द्रियों की अनावश्यक चाह की पूर्ति में अपना श्रम व्यर्थ न करें।

मेरे गुरु आकाश भी हैं। इस जगत में आग लगती है, बरसात होती है, सूर्य, चन्द्र अनेक खगोलीय पिंड भ्रमण करते हैं। वे बिना किसी भेदभाव, बिना किसी से आसक्त हुए दृश्य, अदृश्य सबको समान रूप से उचित स्थान देते हैं। लेकिन उनमें से कोई भी उनकी चेतना को प्रभावित नहीं करता। वह सभी घटनाओं के असम्पृक्त भाव से दृष्टा हैं।

मेरा चौथा गुरु जल है। यह जगत में जीवन के नाम से जाना जाता है। जो भी इसके सम्पर्क में आता है, उसे स्वच्छ करता है, जीवन प्रदान करता है। यह हमेशा प्रवाहमान रहता है। यदि ठहर जाए, तो विकृत हो जाता है। इसलिए सदा प्रवाहमान रहते हुए लोगों का भला करते रहना चाहिए।

दत्तात्रेय के 24 गुरु

भगवान दत्तात्रेय ने जीवन में कई लोगों से शिक्षा ली। उन्होंने मानव जाति के समक्ष यह उदाहरण प्रस्तुत किया कि शिक्षा किसी से भी प्राप्त की जा सकती है। छोटे से छोटे जीव मात्र से भी कुछ सीखा जा सकता है। उन्होंने पशुओं के कार्यकलापों से भी शिक्षा ग्रहण की।

वे कहते थे कि जिससे जितना भी सीखने को मिले उसे सीखने में संकोच न रखें। उन्होंने 24 गुरु बनाए। उनके गुरुओं में पृथ्वी, अग्नि, जल, चंद्रमा, आकाश, सूर्य, कपोत, अजगर, सिंधु, पतंग, भ्रमर, मधुमक्खी, गज, मृग, मीन, पिंगला, कुररपक्षी, बालक, कुमारी कन्या, सर्प, बाण बनाने वाला, मकडी और भृंगी शामिल हैं।

दत्त पादुका पूजन

मान्यता है कि दत्तात्रेय नित्य प्रात:काल काशी की गंगाजी में स्नान करते थे। इसी कारण काशी के मणिकर्णिका घाट की दत्त पादुका दत्त भक्तों के लिए पूजनीय है। इसके अलावा मुख्य पादुका स्थान कर्नाटक के बेलगाम में स्थित है। दत्तात्रेय को गुरु रूप में मान उनकी पादुका को नमन किया जाता है।

भगवान के साथ जुड़े प्रतीक

भगवान दत्तात्रेय के पीछे खड़ी गाय पृथ्वी एवं कामधेनु का प्रतीक हैं। कामधेनु हमें इच्छित वस्तु प्रदान करती हैं।
चार श्वान- ये ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद इन चारों वेदों के प्रतीक हैं।
औदुंबर वृक्ष- भगवान दत्तात्रेय का पूजनीय स्वरूप। इस वृक्ष में भगवान तत्व रूप में मौजूद रहते हैं।

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