एक ऐसा मंदिर जहाँ होती हैं व्हेल मछली की हड्डियों की पूजा
एक ऐसा मंदिर जहाँ होती हैं व्हेल मछली की हड्डियों की पूजा
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हिंदुस्तान के हर क्षेत्र में अनेक तरह की मान्यताएं और देवी-देवताओं के अनेकों मंदिर देखने को मिलते हैं, लेकिन शायद आपने आज तक ऐसे मंदिर के बारे में अब तक न सुना होगा कि जहां व्हेल मछली की हड्डियों की पूजा की जाती है. जी हां, यह मंदिर गुजरात में वलसाड तहसील के मगोद डुंगरी गांव में स्थित है. इस मंदिर को ‘मत्स्य माताजी’ के नाम से जाना जाता है.

मान्यताओं के अनुसार यह मंदिर लगभग 300 साल पुराना है, जिसका निर्माण मछुआरों ने करवाया था. सारे मछुआरे मछली पकड़ने के लिए समुद्र में जाने से पहले मंदिर में माथा टेकते हैं.

मंदिर से जुड़ी एक प्राचीन कथा भी हैं जो इस प्रकार हैं कि लगभग 300 वर्ष पहले यहां रहने वाले प्रभु टंडेल नामक व्यक्ति को एक सपना आया था. टंडेल ने सपने में देखा कि समुद्र किनारे एक व्हेल मछली मृत अवस्था में है. जब उसने सुबह जाकर देखा तो सचमुच में एक मृत व्हेल मछली समुद्र किनारे पड़ी हुई थी. यह एक विशाल आकार की मछली थी, जिसे देखकर ग्रामीण चौंक उठे थे.

टंडेल ने स्वप्न में यह भी देखा था कि देवी मां व्हेल मछली का रूप धरकर तैरते हुए किनारे पर आती हैं. किन्तु किनारे पर आते ही उनकी मौत हो जाती है. यह बात टंडेल ने ग्रामीणों से बताई, और व्हेल को दैवीय अवतार मानकर गांव में एक मंदिर का निर्माण करवाया.

मंदिर के निर्माण से पहले टंडेल ने किनारे ही व्हेल को मिट्टी में दफना दिया था. मंदिर का निर्माण हो जाने के बाद उसने व्हेल की हड्डियां निकाली और उसे मंदिर में स्थापित कर दिया. व्हेल की हड्डियों की स्थापना के बाद से वह और कुछ अन्य ग्रामीण नियमित यहां पूजा-अर्चना करने लगे. हालांकि कुछ ग्रामीण टंडेल के इस विश्वास के खिलाफ भी थे. उन्होंने न तो मंदिर निर्माण में उसका साथ दिया और न ही पूजा-अर्चना की.

कई बार आपने सुना होगा कि दैवीय शक्ति में विश्वास न करने या उसका मजाक उड़ाने का परिणाम भी भुगतना पड़ता है. कुछ ऐसा ही उन ग्रामीणों के साथ भी हुआ. कुछ दिनों बाद ही गांव में भयंकर बीमारी फैल गई. टंडेल के कहने पर लोगों ने इसी मंदिर में मन्नत मांगी कि वे उन्हें माफ कर दें और गांव को रोग से मुक्त कर दें. यह चमत्कार ही था कि पीड़ित लोग अपने आप ठीक होने लगे. इसके बाद से ही पूरे गांव को इस मंदिर में विश्वास हो गया और वे रोजाना पूजा-अर्चना करने लगे.

तबसे लेकर आज तक यह प्रथा कायम है कि गांव का हरेक ग्रामीण समुद्र में उतरने से पहले इस मंदिर के दर्शन करता है. कई लोगों का यह भी मानना है कि जब भी किसी मछुआरे ने समुद्र में जाने से पहले इस मंदिर के दर्शन नहीं किए तो उसके साथ कोई न कोई दुर्घटना जरूर हुई है.

आज भी इस मंदिर का संचालन टंडेल परिवार ही कर रहा है. इतना ही नहीं, प्रतिवर्ष नवरात्रि की अष्टमी पर यहां विशाल मेला भी भरता है.

 

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