तो इसलिए शुरू हुई भोले नाथ की कांवड़ यात्रा
तो इसलिए शुरू हुई भोले नाथ की कांवड़ यात्रा
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भोलेनाथ के भक्त यूं तो सालों भर कांवड़ चढ़ाते रहते हैं लेक‌िन सावन में इसकी धूम कुछ ज्यादा ही रहती है क्योंक‌ि यह महीना है भगवान श‌िव को समर्प‌ित। और अब तो कांवड़ सावन महीने की पहचान बन चुका है। लेक‌िन बहुत कम लोग जानते हैं क‌ि श‌िव जी सबसे पहले कांवड़ क‌िसने चढ़ाया और इसकी शुरुआत कैसे हुई। कुछ कथाओं के अनुसार  भगवान परशुराम ने अपने आराध्य देव शिव के नियमित पूजन के लिए महादेवपुर में मंदिर की स्थापना की और कांवड़ में गंगाजल लाकर पूजन किया। वहीं से कांवड़ यात्रा की शुरूआत हुई जो आज भी देश भर में प्रचलित है।

कांवड़ यात्रा का धार्मिंक महत्व तो जगजाहिर है लेकिन इस कांवड़ यात्रा को वैज्ञानिकों ने उत्तम स्वाास्थ्य से भी जोड़ दिया है। प्रकृति के इस खूबसूरत मौसम में जब चारों तरफ हरियाली छाई रहती है तो कांवड़ यात्री भोलेनाथ को जल चढ़ाने के लिए पैदल चलते हैं। पैदल चलने से हमारे आसपास के वातावरण की कई चीजों का सकारात्मक प्रभाव हमारे मनमस्तिष्क पर पड़ता है। चारों तरफ फैली हरियाली आंखों की रोशनी बढ़ाती है । वहीं ओस की बूँदें नंगे पैरों को ठंडक देती हैं तथा सूर्य की किरणें शरीर को रोगमुक्त बनाती हैं।
 
कांवड़ यात्रा लंबी तथा कठिन होती है लेकिन लक्ष्य एक ही होता है कि महादेव को जल चढ़ाना है । व्यक्ति को इस लम्बी यात्रा के दौरान आत्मनिरीक्षण करने का मौका मिलता है। इस धार्मिक यात्रा की विशेषता यह भी है कि सभी कांवड़ यात्री केसरिया रंग के वस्त्र ही धारण करते हैं। केसरिया रंग जीवन में ओज, साहस, आस्था और गतिशीलता  बढ़ाता है। कलर-थैरेपी के अनुसार यह रंग पेट की बीमारियों को दूर भगाता है। सारे कांवड़ यात्री बोल बम के सम्बोधन से एक-दूसरे का मनोबल बढ़ाते हैं। ये यात्री रास्ते भर एक-दूसरे से वार्तालाप करते चलते हैं। रास्ते में छोटे-बड़े गाँव, शहरों से गुजरते हैं तो स्थानीय लोग भी इन कांवड़ यात्रियों का स्वागत करते हैं। कांवड़ यात्रा में कांवड़ के भी विभिन्न रूप होते हैं।

एक बाँस पर दोनों ओर झूले के आकार को साधते हुए कांवड़ बनाई जाती है। गंगाजल वाले मटके या पात्र दोनों ओर बराबरी से लटके होते हैं । कांवड़ियों  द्वारा विश्राम  या  भोजन के समय इस कांवड़ को जमीन पर नहीं रखा जाता । पेड़ या किसी अन्य स्थान पर इसे टांग दिया जाता है। खड़ी कांवड़ - खड़ी कांवड़ को कन्धे पर ही रखा जाता है। इसे न तो जमीन पर रख सकते हैं ना ही टांगते हैं। यदि कांवड़ियों को विश्राम या भोजन करना हो तो इसे किसी अन्य शिव सेवक को देना पड़ता है। यह कांवड़ यात्रा बहुत कठिन होती है।

झाँकियों वाली कांवड़- इस कांवड़ यात्रा में काविड़ियों का एक गु्रप होता है । ट्रक, जीप या छोटे आकार की कोई खुली गाड़ी में शिव भगवान के बड़े-बड़े फोटो लाकर उस  पर  रंगीन  रोशनी  की  जाती है । कहीं-कहीं फूलों से भी इसका श्रृंगार करते हैं। इसमें गाना-बजाना भी चलता है । कई बार काफी लोग इसे देखने आ जाते हैं। डाक कांवड़ - इसमें कई कांवड़ियों का गु्रप होता है जो एक ट्रक या जीप में सवार रहता है। गाना-बजाना एवं लाइटिंग से सुसज्जित गाड़ियां रहती हैं । जब मन्दिर की दूरी 36 घंटे या 24 घंटे की रह जाती है तो ये कांवड़िये कांवड़ में जल लेकर दौड़ते हैं। जल लेकर लगातार दौड़ना बड़ी कठिन चुनौती होती है। कुछ कांवड़िये व्रत लेकर ऐसी कठिन यात्रा भी शिवजी की महिमा से पूर्ण करते हैं।

 

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