हर व्यक्ति के जीवन में किसी न किसी चीज को पाने के लिये साधक बनकर साधना करना आवश्यक होता है।
किसी समय की बात है जब आचार्य सुहस्ती कौशांबी नगरी में थे। एक दिन आचार्य सुहस्ती के शिष्य अपने ही नगर में भिक्षा के लिए निकल पड़े तभी रास्ते में कुछ दूर चलते ही उन्होने देखा की उनके पीछे-पीछे एक भिखारी भी चला आ रहा है। कुछ समय पश्चात वह भिखारी उनके पास पहुंचा और उसने इन साधुओं से अपनी भूख शांत करने के लिए भोजन मांगा।
आचार्य सुहस्ती को जब उस व्यक्ति द्वारा भोजन मागने की बात पता चली तो उन्होंने अपने अंतरध्यान व ज्ञानयोग से जान लिया कि यह दीन-हीन दिखने वाला अपने अगले जन्म में धार्मिकता का अत्याधिक विस्तार करने वाला होगा। इसके बाद उस भिखारी को संबोधित करते हुए आचार्य सुहस्ती ने कहा – यदि तुम मुनि जीवन स्वीकार करते हो तो तुम्हें हम भोजन दे सकते हैं।
साधु द्वारा याचित भोजन में से गृहस्थ को देना उचित नहीं है। आचार्य सुहस्ती की बात सुनते ही भिखारी इसके लिए सहमत हो गया और आर्य सुहस्ती ने उसे दीक्षा दे दी। कई दिनों की भूख से परेशान उस भिखारी को पहली बार उस दिन पर्याप्त भोजन मिला। उस भिखारी ने उस दिन जरूरत से अधिक भोजन कर लिया जिसके कारण उसे स्वास लेने मे बाधा होने लगी और वह भिखारी उसी दिन की रात्रि आते ही काल-धर्म को प्राप्त हो गया।
इसके बाद वही भिखारी अगले जन्म में मगध सम्राट अशोक के पुत्र संप्रति के रूप में जन्मा। जब एक दिन राजकुमार संप्रति अपने राजदरबार में बैठा था तभी उसने आचार्य सुहस्ती को राजपथ से गुजरते हुये देखा। आर्य सुहस्ती को लगा की ऐसा लग रहा है। जैसे मेने कभी इन्हे देखा है । विशेष ध्यान केंद्रित करने पर राजकुमार संप्रति को अपना पूर्वजन्म याद आने लगा।
वह अपने महल से नीचे आया और आचार्य सुहस्ती को प्रणाम करते हुए पूछा की 'गुरुदेव, आपने मुझे पहचाना क्या ? सुहस्ती कुछ देर उसे देखते रहे उसके बाद उन्होने उस राजकुमार संप्रति के पूर्व जन्म के बारे में सब कुछ बता दिया ।
तब संप्रति ने आचार्य से कहा की उस भिखारी के जन्म में यदि आप मुझे शरण में नहीं लेते तो आज जाने मेरी क्या दशा होती। गुरु देव आप धन्य है ।इस जन्म में भी आप मुझे शिष्य रूप में मानकर जीवन में कर्तव्य की शिक्षा देकर अनुगृहीत करें।
अब आपने भी जान लिया होगा की धर्मधारणा और आध्यात्मिक उपासना करने से साधना का क्या महत्व होता है ।