ज्ञान-विज्ञान : संविधान बनने से पहले पारित हुए थे ये अधिनियम
ज्ञान-विज्ञान : संविधान बनने से पहले पारित हुए थे ये अधिनियम
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भारत में संविधान निर्माण से पहले ब्रिटिश सरकार ने विभिन्न कानूनों और  अधिनयमों को पारित कर दिया था।  इन  नियमों पर भारतीय समाज के अलग-अलग हिस्सों से विभिन्न प्रतिक्रियाएं सामने आयी थी और भारतीय राजनीतिक प्रणाली तैयार करने में इन कानूनों ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हालांकि, अंत में भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 ने भारत में ब्रिटिश शासन को समाप्त कर दिया और 15 अगस्त 1947 को भारत को एक स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र के रूप में घोषित कर दिया गया।

संविधान बनने से पहले, पारित हुए अधिनियम
महत्वपूर्ण और परिणामिक अधिनयमों का वर्णन इस प्रकार है:
विनियमन अधिनियम, 1773
विनियमन अधिनियम, 1773 यह पहला कानून था जिसे ईस्ट इंडिया कंपनी की कार्यप्रणाली को विनियमित करने के लिए सबसे पहले लागू किया गया था।
गवर्नर जनरल से मिलकर बंगाल में एक मंडल सरकार का गठन किया गया था जिसके हाथों में नागरिक और सैन्य शक्तियां निहित थी।
एक मुख्य न्यायाधीश और तीन अन्य न्यायाधीशों को शामिल कर बंगाल में एक सुप्रीम कोर्ट स्थापित किया गया था।
पिट्स इंडिया एक्ट, 1784
यह अधिनियम  कंपनी मामलों पर ब्रिटिश सरकार के नियंत्रण का एक और विस्तार था।
नागरिक, सैनिक और राजस्व मामलों को नियंत्रित करने के लिए नियंत्रण बोर्ड स्थापित किया गया था।

नियंत्रण बोर्ड द्वारा मंजूर किये गये निर्देशकों के प्रस्ताव को रद्द या निलंबित करने का कोर्ट के पास कोई अधिकार नहीं रह गया था।
1833 का चार्टर एक्ट (अधिनियम)
अधिनियम का मुख्य केंद्र शक्तियों का विकेंद्रीकरण करना था।
बंगाल के गवर्नर जनरल को भारत का गवर्नर जनरल बना दिया गया था। भारत के पहले गवर्नर जनरल विलियम बेंटिक थे।
बम्बई और मद्रास के गवर्नरों सहित पूरे भारत के विधायी अधिकार दिये गये थे।
कंपनी ने एक वाणिज्यिक निकाय का दर्जा खो दिया था और अब यह विशुद्ध रूप से एक प्रशासनिक निकाय बन गयी थी।
भारतीय कानूनों को मजबूत और बदलने के लिए करने के लिए एक विधि आयोग की स्थापना की गयी थी।
भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के नियमों और आक्रामक क्षेत्रीय नीतियों ने भारत के अभिजात शासक वर्ग के मन में अंसतोष पैदा कर दिया था जिसके परिणामस्वरूप 1857 के विद्रोह अथवा क्रांति का जन्म हुआ था।
भारत में ताज (क्राउन) के नाम पर वायसराय के माध्यम से शासन संचालित हो रहा था जो (वायसराय) भारत में क्राउन का प्रतिनिधि होता था। भारत के

गवर्नर जनरल का पद वायसराय में तब्दील हो गया था। इस प्रकार, गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग भारत का पहला वायसराय बना था।
नियंत्रण बोर्ड और निदेशक मंडल की सारी शक्तियों को समाप्त कर इसकी शक्तियां ब्रिटिश क्राउन को हस्तांतरित कर दी गयी थी।
उसकी सहायता करने के लिए 15 सदस्यीय भारतीय परिषद के साथ एक राज्य सचिव का नया कार्यालय बनाया गया था।
इंडियन काउंसिल एक्ट, 1861 (भारतीय परिषद अधिनियम)
अधिनियम का प्रमुख ध्यान भारत के प्रशासन पर केंद्रित था। कानून बनाने की प्रक्रिया में भारतीयों को शामिल करने के लिए यह पहला कदम था।
अधिनियम में यह प्रावधान था कि कि वाइसराय को विधान परिषद में गैर सरकारी सदस्य के रूप में कुछ भारतीयों को मनोनीत करना होगा।
मद्रास और बंबई प्रेसीडेंसी की विधायी शक्तियों को बहाल कर दिया गया था।
इस अधिनियम ने बंगाल, उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत (एनडब्ल्यूएफपी) और पंजाब में विधान परिषदों की स्थापना करने का अधिकार दिया था।
वायसराय के पास यह अधिकार था कि वह आपातकालीन स्थिति में विधान परिषद की सहमति के बिना अध्यादेश जारी कर सकता है।
इंडियन काउंसिल एक्ट, 1892 (भारतीय परिषद अधिनियम, 1892)

केंद्र और प्रांतीय विधान परिषदों में एक बड़ी संख्या में गैर सरकारी सदस्यों की की वृद्धि की गई थी।
विधायिका के कार्यों में वृद्धि की गयी थी जिससे सदस्यों को बजट से संबंधित मामलों पर सवाल पूछने या चर्चा करने का अधिकार मिल गया था।
इंडियन काउंसिल एक्ट, 1909 ((मॉर्ले-मिंटो सुधार)
केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों में सदस्यों की संख्या में काफी बढ़ोत्तरी हो गयी थी।
वायसराय और राज्यपालों की कार्यकारी परिषद में भारतीयों संस्था को शामिल किया गया था। एक कानूनी सदस्य के रूप में सत्येंद्र प्रसाद सिन्हा

वायसराय की कार्यकारी परिषद में शामिल हो गए थे।
इसने मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन की शुरुआत की थी।
भारत सरकार का अधिनियम, 1919
इस अधिनियम को मोंटेग- चेम्सफोर्ड सुधारों के रूप में जाना जाता है।
अधिनियम ने केंद्र में द्विसदनीय विधायिकाओं की स्थापना की जिसमें दो सदन शामिल थे-  राज्यों की परिषद (ऊपरी सदन) और केन्द्रीय विधान सभा (निचला सदन)।
केंद्रीय और प्रांतीय विषयों का सीमांकन और बटवारा हो गया था।
आगे चलकर प्रांतीय विषयों को स्थानांतरित विषय और आरक्षित विषयों में विभाजित कर दिया गया था, इसमें विधान परिषद का कोई सीधा दखल नहीं था। इसे द्वैध शासन प्रणाली के रूप में जाना जाता था।

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