ो सावन की रात अकेली सी लगे ,
जिंदगी की हर बात पहेली सी लगे !
जख्मो का ये व्यंग - महल भी अब ,
हर रात मुझे क्यूं नई नवेली सी लगे !
हर कलाम मेरा तुझे बेखबर कर दे ,
जाने क्यों मुझे वो तेरी सहेली सी लगे !
रूबरू हो खुदा कभी तू तो बोलूं मै ,
खुला आसमां मुझे क्यूं हवेली सी लगे !
मसरूफ़ जीस्त से सांस लेकर 'कुमार' ,
मुस्कुराए जो भी तो तू चमेली सी लगे !