एक जोगी जिसने अपने गीतों, साहित्य से जगाया राष्ट्रवाद का अलख
एक जोगी जिसने अपने गीतों, साहित्य से जगाया राष्ट्रवाद का अलख
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आपने सरोद की धुन पर बजते हुए या किसी पाश्र्व गायक के कंठ से अक्सर ही इस गीत को सुना होगा जोगी तोर डाक श्युने ना असरे एकला चलो रे। जी हां, बांग्लाभाषा का यह गीत बेहद ही सुंदर है और इस गीत की रचना के इतने वर्षों बाद भी यह आज भी लोगों के होठों पर बना हुआ है। जी हां, राष्ट्र कवि की तरह सम्मानित आचार्य रबिंद्रनाथ टैगोर ने इस गीत की रचना की है। आज भी जब पश्चिमबंगाल के शांति निकेतन में पेड़ों और पौधों की पत्तियां हवा से हिलती हैं और सरसराहट होती है तो ऐसा लगता है जैसे कानों में कवि श्री रबिंद्रनाथ टैगोर का यही गीत गूंज रहा है।

यहां पर आज भी असीम शांति है और आज भी गुरूदेव रबिंद्रनाथ टैगोर की शिक्षा का असर नज़र आता है। यहां आज भी उनके जीवन कृतित्व के चिन्ह दिखलाई पड़ते हैं। दरअसल गुरूदेव रबिंद्रनाथ टैगोर का जन्म 7 मई 1861 में कलकत्ता में देवेंद्रनाथ टैगोर और शारदा देवी के यहां हुआ था। परिवार में साहित्य, कला, नृत्य, कला आदि के प्रति प्रेम था ऐसे में रविंद्रनाथ टैगोर पर इसका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। हालांकिर रबिंद्रनाथ टैगोर की चित्रकला के प्रति काफी रूचि थी।

रबिंद्रनाथ टैगोर की स्कूली शिक्षा सेंट ज़ेवियर स्कूल में हुई। वे कानून की डिग्री लेने के लिए लंदन गए थे मगर 1880 बिना डिग्री लिए ही वापस स्वदेश लौट आए। रबिंद्रनाथ टैगोर को कहानियां और कविताऐं लिखने में दिलचस्पी थी। युवावस्था में रबींद्रनाथ टैगोर बांग्ला कवि, कहानीकार और गीतकार हुए। उन्हें वर्ष 1913 में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। उन्होंने बांग्ला साहित्य में गद्य और छन्द का प्रारंभ किया। रबींद्रनाथ टैगोर साहित्य में इतने पारंगत हो गए थे कि उन्होंने जो रचना की उसे भारत के राष्ट्रगान के तौर पर स्वीकार किया गया।

बांग्लाभाषा की रचना में भारत का वर्णन किया गया है। कम लोग ही जानते होंगे कि जो राष्ट्रगान बांग्लादेश ने अपनाया है वह भी कविवर रबींद्रनाथ टैगोर की रचना है। रबींद्र नाथ अपनी रचनाओं को सबुज पत्र जिे हरे पत्ते भी कहते हैं उसमें ही छपवाया करते थे। उनकी रचनाओं में साधारण मानव की वेदना थी तो स्वाधीनता के लिए आगे बढ़ रही जनता और उसके नेतृत्वकर्ताओं के प्रयासों की बातें थीं। उनकी कहानियों में काबुलीवाला, मास्टर साहब पोस्टमास्टर प्रमुख थीं। राष्ट्रगान के रचनाकार टैगोर को बंगाल के ग्रामांचल से प्रेम था। पद्मा नदी उन्हें बेहद प्रिय थी।

रबींद्रनाथ टैगोर ने 1901 में पश्चिम बंगाल के ग्रामीण क्षेत्र में शांतिनिकेतन में प्रायोगिक विद्यालय खोला। यह अपने आपमें बेहद अनुपम था। बाद में वर्ष 1921 आते आते यह विश्व भारती विश्वविद्यालय बन गया। 1902 और 1907 के मध्य उनकी पत्नी और दो बच्चों की मृत्यु हो गई। मिली जानकारी के अनुसार शांति निकेतन को सरकारी मदद मिलना बंद हो गई। इसके बाद पुलिस ने इसे ब्लैक लिस्ट में डाल दिया।

रवींद्रनाथ टैगोर 1878 में लंदन पहुंचे इस दौरान उनकी कविताओं की पुस्तक का अंग्रेजी में अनुवाद हुआ। उनकी रचना गीतांजलि का अंग्रेजी अनुवाद होने के बाद लोगों ने उन्हें और सराहा। अंग्रेज सरकार ने उन्हें सर की उपाधि दी थी लेकिन बाद में उन्होंने सर की यह उपाधि पापस कर दी थी। वर्ष 1941 में वे भारतीयों को अलविदा कहकर परलोक को चले गए।

 

 

 

 

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