अक्सर आपने देखा होगा कि शिक्षा सम्बंधित सवाल को मीडिया जैसे क्षेत्र द्वारा कभी-कभार ही महत्त्व दिया जाता है. परन्तु एक बेहद सुखद और आश्चर्यजनक बात पिछले दिनों देखने को मिली जब एक मीडिया चैनल द्वारा इस मामले पर बड़ी गंभीरता से कुछ आवश्यक मुद्दे उठाये गए. बात-चीत में कई तरह के चिंता जनक विषय सामने आए. लेकिन सबसे ख़ास बात यह रही कि इस में तवज्जो उस बात को दी गई कि, पूरे भारत में विश्वविद्यालयों में हजारों पद खाली पड़े हैं, और संविदा या तदर्थ आधार पर नियुक्त शिक्षकों को उनकी योग्यता के अनुरूप बहुत कम वेतन दिया जा रहा है.
सबसे पहली बात यह कि यह सब किया कराया नहीं है, अर्थात सब कुछ रातो-रात नहीं हुआ है. बल्कि यह हालत तो पिछले 30 वर्ष से चली आ रही है. उदारीकरण जब हुआ तो उसका प्रभाव सर्वप्रथम शिक्षा, बैंक और बीमा सम्बंधित क्षेत्रों में देखने को मिला. तदर्थ नौकरियों, शिक्षा मित्र जैसी चीजों की शुरुआत भी इसी समय हुई. इस दौरान अलग -अलग दल की सरकार केंद्र में रही. लेकिन कभी इस पर बवाल होता हुआ नहीं देखा कि आईआईटी, एम्स, आईआईएम जैसे संस्थानों में शिक्षकों के 50 प्रतिशत पद खाली क्यों पड़े हुए हैं?
साथ ही शिक्षकों की शैक्षणिक योग्यता, इतने महत्वपूर्ण संस्थानों में शिक्षा कौन दे रहा, इस सवाल पर अधिकतर राजनेता चुप्पी साध लेते है. हम इतने पिछड़े हुए है कि हम विदेशो से शिक्षक-विद्यार्थी अनुपात से लेकर ग्रेडिंग, सतत मूल्यांकन, परीक्षा, प्रयोगशाला, सेमेस्टर जैसी कितनी बातें अपनी शिक्षा प्रणाली में शामिल करते हैं. वही शिक्षकों की योग्यता, भर्ती के प्रश्न को निरंतर दरकिनार और नजरअंदाज करते आ रहे हैं. इसलिए दूसरी अन्य बातों के साथ इन प्रश्नो से जूझे बिना शिक्षा-व्यवस्था में सुधार असंभव है.
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