भीड़ का बेकाबू होना सांप्रदायिक है या नहीं पर राजनेताओ की टिप्पणिया ज़रूर सांप्रदायिकता से निकली हुई लगती है। इसी बीच भाजपा सांसदों की एक तथ्य खोजने वाली टीम को, जिसमे भूपेंद्र यादव, राम विलास वेदांती और एस एस अहलूवालिया थे, मालदा टाउन स्टेशन पर गौड़ एक्सप्रेस मे ही जिला प्रशासन द्वारा वापस कर दिया गया।
मालदा हिंसा मामले पर बवाल उठाना कुछ अस्वाभाविक सा लग सकता है। पर बीजेपी ने सीधा निशाना ममता बेनर्जी पर साधा है। मालदा हिंसा, जिसमे पुलिस कर्मियों समेत 30 लोग हताहत हुए है, अब दादरी मामले के समकक्ष रख कर देखा जा रहा है। इस मसले पर ममता सरकार को बीजेपी हर तरफ से घेरना चाहती है।
सरकार को किस बात का डर है जो बीजेपी की टीम को रोका गया। कैलाश विजयवर्गीय ने भी इस घटना मे उनके कार्यकर्ता होने पर सवाल पुछ लिया। कैलाश विजयवर्गीय ने तो यह भी कहा कि दादरी को जितना कवरेज मिला उतना मालदा हिंसा को नहीं मिला। शायद पश्चिम बंगाल सरकार भी चाहती है कि इसे मई मे होने वाले चुनाव का मुद्दा नहीं बनने दिया जाए। सरकार को इस मसले को और गंभीरता से लेने कि ज़रूरत थी।
सरकार गलत इसलिए है कि किसी भी व्यक्ति को इस तरह रोकने का कोई ठोस कारण नहीं है। वही सरकार सही इसलिए है कि टीम कोई सीबीआई जैसी आधिकारिक टीम नहीं थी जो जांच करे। सबूतो से छेड़-छाड़ कोई नहीं चाहेगा। बिहार मे चुनाव होने के बाद बीफ मुद्दा दाब गया था शायद यह भी मुद्दा अब पक्षिम बंगाल के चुनाव के बाद दाब जाए।
कही मालदा हिंसा सांप्रदायिक मानी जा रही है तो कही इसे एक राजनेतीक ड्रामा कहा जा रहा है। हिंसा पश्चिम बंगाल में मालदा जिले के कलियाचक में बाहर भारत 3 जनवरी को हुई। भारत की 2011 की जनगणना के अनुसार, मुसलमानों की संख्या मालदा जिले में किसी भी अन्य धर्म के अनुयायियों की संख्या से अधिक है। बस यही मामला सांप्रदायिक हो जाता है।
इस हिंसा मे बेकाबू भीड़ ने बीएसएफ़ की गड़िया भी जलाई गई। अनुमान के मुताबिक 30 हजार से 2.5 लाख मुस्लिम, हिंदू नेता/हिन्दू महासभा चीफ, कमलेश तिवारी की 3 दिसंबर 2015 की टिप्पणी का विरोध कर रहे थे। कमलेश तिवारी ने पैगंबर मुहम्मद को दुनिया का पहला समलैंगिक बुलाया था। इसके पहले आज़म खान आरएसएस के कार्यकर्ताओ को समलैंगिक कह चुके थे।
मई तक जांच जारी रहेगी और चुनाव का समीकरण भी खबरों के मुताबिक तय होता रहेगा।
'हिमांशु मुरार'