पढ़िए भक्त प्रहलाद की पूरी कथा
पढ़िए भक्त प्रहलाद की पूरी कथा
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फागुन जिन कारणों से मशहूर है, उनमें दीवानापन और मस्ती का आवेग भी मौजूद है। वहीं ऐसा नहीं है कि फागुन कोई पहली बार आया हो और लोगों में आनंद-उल्लास जगा हो, परन्तु कहते हैं की शुरुआत प्रह्लाद से हुई। प्रह्लाद अर्थात खास किस्म के उल्लास से सराबोर व्यक्तित्व।इसके साथ ही आनंद-उल्लास पहले भी रहे होंगे, परन्तु अर्जित या विकसित स्थिति में पहली बार प्रह्लाद के रूप में स्थापित हुआ। इसके अलावा कयाधु (प्रह्लाद की जननी) ने अपने पति हिरण्यकश्यप से होशियारी से 'नारायण-नारायण' नाम की एक माला जपवा ली। वहीं कहते हैं कि इसके प्रभाव से ही कयाधु, प्रह्लाद जैसे विष्णुभक्त की मां बनीं। कयाधु के अलावा सभी परिजन हिरण्यकश्यप और बुआ होलिका आदि आसुरी स्वभाव के थे। वहीं शुक्राचार्य गुरु तो थे, पर अपनी प्रकृति के कारण आसुरी स्वभाव के कहे जाते थे। ऐसे में दत्तात्रेय, शंड और मर्क के अलावा आयुष्मान, शिवि, वाष्कल, विरोचन और यशकीर्ति आदि पुत्र-कलत्र विष्णुभक्त भी कहलाते थे। प्रह्लाद भी विष्णुभक्त ही निकले। वहीं यद्यपि पिता ने बहुत कहा-सुना और यातनाएं दी, पर बेटे को विष्णुभक्ति से डिगा न सके। देवर्षि नारद तो मां को ही भक्त स्वभाव का बनाने के लिए कयाधु को अपने आश्रम ले गए थे। इसके साथ ही आश्रम में ही नारद ने कयाधु और गर्भस्थ शिशु को ईश्वर भक्ति के संस्कार दिए।वहीं प्रह्लाद के बारे में कहते हैं कि उन्होंने मां के गर्भ में ही भक्ति के संस्कार ग्रहण कर लिए थे। 

इसके साथ ही नारद जैसे परम भागवत का सान्निध्य मिलने पर दैत्यकुल में जन्म लेते हुए भी प्रह्लाद बचपन से ही भक्त हो गए। इसके साथ ही प्रह्लाद को भक्त बनता देख पिता हिरण्यकश्यप ने पुत्र को दैत्यगुरु शुक्राचार्य के आश्रम में भी भेजा। वहां उसने लौकिक विद्याएं सीखीं तो सही, परन्तु भक्ति के संस्कार ही पल्लवित हुए।वहीं  नारद के अलावा दत्तात्रेय, शंड और मर्क आदि ऋषियों ने भी प्रहलाद को शिक्षित और संस्कारित किया। प्रह्लाद के ही एक चाचा हिरण्याक्ष अमर होने की कोशिश में मृत्यु को प्राप्त हो गए थे। इसके साथ ही देवताओं को पता चला तो उचित अवसर जानकर उन्होंने दैत्यपुरी पर आक्रमण कर दिया। प्रह्लाद के पिता हिरण्यकश्यप खुद को ही ईश्वर मानता था। वह अपनी पूजा कराने लगा था। ऐसी शक्तियां और सिद्धियां उसने पा ली थी कि कोई भी प्राणी, कहीं भी, किसी भी समय उसे मार नहीं सकता था। किसी भी जीव-जंतु, देवी-देवता, राक्षस या मनुष्य से अवध्य, न रात में न दिन में, न पृथ्वी पर, न आकाश में, न घर, न बाहर। कोई अस्त्र-शस्त्र भी उस पर असर न कर पाए। ऐसा वरदान पाकर वह निरंकुश अत्याचारी बन बैठा। प्रह्लाद की विष्णु भक्ति बुरी तरह खलने लगी।वहीं  प्रह्लाद को मारने के कई प्रयत्न किए गए, लेकिन हर बार वह बच गए। होलिका को अग्नि से बचने का वरदान था। हिरण्यकश्यप ने होलिका की सहायता से प्रह्लाद को जलाकर मारने की योजना बनाई। उसके मुताबिक  होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर जलती हुई अग्नि में जा बैठी, लेकिन प्रह्लाद चमत्कारी ढंग से बच गए और होलिका जलकर राख हो गई। उधर विष्णु ने नृसिंह के रूप में खंभे से निकलकर गोधूलि के समय हिरण्यकश्यप को मार डाला। मान्यता है कि तभी से 'होली' का त्योहार मनाया जाने लगा। हिरण्यकश्यप के वध के बाद उत्तराधिकारी के रूप में प्रह्लाद अभिषिक्त हुए। 

नृसिंह ने उन्हें पाताल का राज्य दिया। वह नैमिषारण्य गए और नारायण के दर्शन और उनके स्वरूप को जाना। इसके साथ ही प्रह्लाद की तपस्या और सत्कर्मों के कारण देवताओं के राजा इंद्र ने उन्हें अपना पद सौंप दिया। पर उनसे रहा न गया। वहीं देवताओं के गुरु बृहस्पति से इंद्र ने अपनी व्यथा कही।वहीं  बृहस्पति के कहने पर एक सुबह इंद्र प्रह्लाद के पास गए। प्रह्लाद प्रतिदिन प्रात:काल दान किया करते थे। उस समय किसी याचक को खाली हाथ नहीं लौटाते। देवगुरु के कहने पर इंद्र प्रह्लाद के पास गए। प्रह्लाद ने उनसे भी कुछ मांगने के लिए कहा। वहीं इंद्र ने उनका शील ही मांग लिया।  वहीं उन्होंने अपने शील को जाने के लिए कह दिया। कहते ही चरित्र, शौर्य और वैभव सभी चले गए। अंत में एक प्राणवान पुंज निकला। इसके साथ ही प्रह्लाद ने उसकी ओर देखा, तो वह बोला, ''आपके पास अब न शौर्य है न वैभव, न तप, न प्रतिष्ठा और न ही संपदा। मेरा छोड़ना सुनकर सभी विभूतियां चली गईं। अब मैं भी जा रहा हूं।'' इंद्र ने केवल शील लेकर ही प्रह्लाद का सबकुछ ले लिया। कथा कहती है कि शील से ही उल्लास, ऊर्जा और प्राण है। आस-पास कैसे भी लोग हों तो भी व्यक्ति जल में कमल की तरह खिला रह सकता है।

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