इस त्यौहार को मनाने के पीछे इस्लाम धर्म में छुपा है गहरा राज़
इस त्यौहार को मनाने के पीछे इस्लाम धर्म में छुपा है गहरा राज़
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आने वाले दिनों में इस्लाम धर्म का खास त्यौहार ‘ईद-उल-जुहा’ दुनिया भर में मनाया जाएगा। इसे बकरीद के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि इस दिन धार्मिक मर्यादाओं के अनुसार बकरे की कुर्बानी दी जाती है। वर्ष भर में इस्लाम धर्म में दो ऐसे त्यौहार आते हैं, जो सभी में हर्षोल्लास भर देते हैं। आपने शायद ईद-उल-जुहा के अलावा ईद-उल-फित्र के बारे में भी सुन रखा होगा। यह त्यौहार ईद-उल-जुहा से पहले ही आता है, जिसे मीठी ईद के नाम से भी जाना जाता है। जिन्हें इस्लाम धर्म से जुड़े त्यौहारों का ज्ञान नहीं है, वे इन दोनों त्यौहारों के बीच के अंतर को समझ नहीं पाते हैं।

लेकिन आज हम आपको काफी बारीकी से इन दोनों त्यौहारों के अंतर के साथ इन्हें मनाने की वजह, इसके पीछे की कहानी एवं किस तरह से इसे मनाया जाता है, यह सब कुछ विस्तार में बताएंगे।

ईद-उल-जुहा अत्यधिक खुशी, विशेष प्रार्थनाओं और अभिवादन करने का त्यौहार है। सभी मुस्लिम भाई इस दिन एक-दूसरे के साथ उपहार बांटते हैं, जिस तरह से हिन्दू धर्म में दीपावली पर काफी धूमधाम होती है। ठीक इसी तरह से ईद-उल-जुहा के दिन हर मुस्लिम परिवार में रौनक दिखाई देती है। ईद-उल-जुहा, यह नाम अधिकतर अरबी देशों में ही लिया जाता है, लेकिन भारतीय उप महाद्वीप में इस त्यौहार को बकर-ईद कहा जाता है, इसका कारण है इस दिन बकरे की कुर्बानी दिया जाना। लेकिन इससे पहले वाली ईद इससे बिल्कुल विपरीत है।

ईद-उल-फित्र काफी लंबे समय के रोज़े, यानी की उपवास के बाद आती है, जिसे रमज़ान का महीना कहा जाता है। यह 29 से 30 दिन का होता है, जिसके बाद अंतिम दिन मीठी सेवइयां बनाकर बांटी जाती हैं। यह सेवइयां उन सभी के लिए इनाम के समान होती हैं, जिन्होंने महीना भर रोज़े रखकर अल्लाह की इबादत में अपने धर्म को सम्मान किया है। ईद-उल-फित्र पर एक खास रकम गरीबों को दी जाती है।

माना जाता है कि ऐसा करने से जान और माल की सुरक्षा बनी रहती है। परिवार में सभी लोगों का फितरा दिया जाता है, जिसमें पौने दो किलो गेहूं दिया जाता है। इस ईद की सबसे खास बात यह है कि इसके आखिरी दिन सबसे पहले मीठा ही ग्रहण किया जाता है, इसलिए इसे मीठी ईद कहकर पुकारा जाता है। लेकिन मीठी ईद के ठीक 2 महीने बाद आती है बकरीद। इस्लाम धर्म में एक बकरे की कुर्बानी देकर मनाया जाने वाला यह त्यौहार हमेशा लोगों की चर्चा का विषय बन जाता है। लेकिन जिन लोगों को इस धर्म तथा इससे जुड़े बकरीद के त्यौहार का पूर्ण ज्ञान नहीं है, वे नहीं जानते कि क्यों बकरे की कुर्बानी देने का महत्व है।

वैसे केवल बकरे की ही नहीं, कुछ लोग ऊंट की कुर्बानी भी देते हैं। लेकिन ऐसा क्यों किया जाता है? खुशियों के त्यौहार में किसी बेज़ुबान जानवर की कुर्बानी देने का क्या अर्थ है? दरअसल इसके पीछे एक कहानी एवं उससे जुड़ी मान्यता छिपी है। इस कहानी के अनुसार एक बार इब्राहीम अलैय सलाम नामक एक व्यक्ति थे, जिन्हें ख्वाब (सपने) में अल्लाह का हुक्म हुआ कि वे अपने प्यारे बेटे इस्माइल जो बाद में पैगंबर हुए, को अल्लाह की राह में कुर्बान कर दें। यह इब्राहीम अलैय सलाम के लिए एक इम्तिहान था, जिसमें एक तरफ थी अपने बेटे से मुहब्बत और एक तरफ था अल्लाह का हुक्म।

लेकिन अल्लाह का हुक्म ठुकराना अपने धर्म की तौहीन करने के समान था, जो इब्राहीम अलैय सलाम को कभी भी कुबूल ना था। इसलिए उन्होंने सिर्फ अल्लाह के हुक्म को पूरा करने का निर्णय बनाया और अपने बेटे की कुर्बानी देने को तैयार हो गए। लेकिन अल्लाह भी रहीमो करीम है और वह अपने बंदे के दिल के हाल को बाखूबी जानता है। उसने स्वयं ऐसा रास्ता खोज निकाला था जिससे उसके बंदे को दर्द ना हो। कहानी के अनुसार जैसे ही इब्राहीम अलैय सलाम छुरी लेकर अपने बेटे को कुर्बान करने लगे, वैसे ही फरिश्तों के सरदार जिब्रील अमीन ने बिजली की तेजी से इस्माईल अलैय सलाम को छुरी के नीचे से हटाकर उनकी जगह एक मेमने को रख दिया।

फिर क्या, इस तरह इब्राहीम अलैय सलाम के हाथों मेमने के जिबह होने के साथ पहली कुर्बानी हुई। इसके बाद जिब्रील अमीन ने इब्राहीम अलैय सलाम को खुशखबरी सुनाई कि अल्लाह ने आपकी कुर्बानी कुबूल कर ली है और अल्लाह आपकी कुर्बानी से राजी है। इसलिए तभी से इस त्यौहार पर अल्लाह के नाम पर एक जानवर की कुर्बानी दी जाती है। लेकिन ना केवल इस कहानी के आधार पर, वरन् ऐसी कई मान्यताएं हैं जो एक जानवर को कुर्बानी देने के लिए उत्सुक करती हैं। इस्लाम में कुर्बानी का अर्थ ही ऐसा है जो पाक है।

दरअसल इस्लाम, क़ौम से जीवन के हर क्षेत्र में कुर्बानी मांगता है। इस्लाम के प्रसार में धन व जीवन की कुर्बानी, नरम बिस्तर छोड़कर कड़कड़ाती ठंड या जबर्दस्त गर्मी में बेसहारा लोगों की सेवा के लिए जान की कुर्बानी भी खास मायने रखती है। कुर्बानी का असली मतलब यहां ऐसे बलिदान से है जो दूसरों के लिए दिया गया हो। परन्तु इस त्यौहार के दिन जानवरों की कुर्बानी महज एक प्रतीक है। असल कुर्बानी हर एक मुस्लिम को अल्लाह के लिए जीवन भर करनी होती है।

काफी रोचक बात है, लेकिन कुर्बानी के लिए खासतौर पर जानवरों का चयन किया जाता है। बकरा या फिर ऊंट कुर्बान किए जा सकते हैं लेकिन वह किस रूप एवं अवस्था में हों, यह जान लेना बेहद जरूरी होता है। इसके भी कई नियम एवं कानून हैं, जिनका उल्लंघन करना आल्लाह के नियमों की तौहीन करने के समान है। इसलिए जानकारी के अनुसार, वह पशु कुर्बान नहीं किया जा सकता जिसमें कोई शारीरिक बीमारी या भैंगापन हो, सींग या कान का अधिकतर भाग टूटा हो या जो शारीरिक तौर से बिल्कुल दुबला-पतला हो। बहुत छोटे पशु की भी बलि नहीं दी जा सकती। कम-से-कम उसे दो दांत (एक साल) या चार दांत (डेढ़ साल) का होना चाहिए।

कब कुर्बानी दी जाए इसके लिए भी कड़े कानून हैं... जैसे कि कुर्बानी ईद की नमाज के बाद की जाती है, इससे पहले कुर्बानी देने का कोई अर्थ नहीं है। तथा कुर्बानी के बाद मांस के तीन हिस्से होते हैं। एक खुद के इस्तेमाल के लिए, दूसरा गरीबों के लिए और तीसरा संबंधियों के लिए। वैसे, कुछ लोग सभी हिस्से गरीबों में बांट देते हैं।

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