देशभर में माता विंध्यवासिनी को तरह तरह से पूजा जाता है। यूं तो इनका स्थल विंध्याचल पर्वत माला पर माना जाता है लेकिन माता जगदम्बा आठ प्रमुख मंदिरों में भी विराजती हैं। जहां उन्हें अलग अलग नामों से जाना जाता है। महाराष्ट्र की सह्याद्री पर्वत श्रृंखला पर माता विंध्यवासिनी ऐसी ही शक्ति के तौर पर प्रतिष्ठापित हैं। यहां उन्हें विंझाई कहा जाता है। माता प्रकृति की गोद में श्रद्धालुओं को दर्शन देती हैं। श्रद्धालु यहां पर्वत की चढ़ाई चढ़कर माता के दर्शनों के लिए आते हैं। यहां आने वाले की सारी मनोकामनाऐं पूर्ण होती हैं।
इस मंदिर का प्रबंधन देवस्थान मंडल के अधीन है जिसका निर्माण 18 अप्रैल 1773 को हुआ। अर्थात् मंदिर इस मंडल के पहले से ही अस्तित्व में है। इस मंडल के निर्माण से देवस्थान में आवश्यक व्यवस्थाऐं जुटाई जाने लगीं। यूं तो यहां पर माता की अति प्राचीन काले पाषाण की प्रतिमा प्रतिष्ठापित है। माता के हाथ में तलवार है। माता का यह स्थल बेहद जागृत है।
विभिन्न अवसरों पर माता का आकर्षक श्रृंगार किया जाता है। दरअसल सैकड़ों वर्षों पहले श्री महादेव प्रभु और राम प्रभु दो भाई माता जगदंबा श्री मां पार्वती को प्रसन्न करने के लिए तप करने लगे। तप के ही दौरान बड़े भाई ने अपना सिर माता के चरणों में चढ़ा दिया। छोटा भाई भी ऐसा विचार करने लगा लेकिन वह तप करता रहा।
उसके तप से माता प्रसन्न हुईं और उन्होंने उसे आशीर्वाद दिया कि तू दक्षिण दिशा में आगे बढ़ मैं तेरे पीछे - पीछे आ रही हूं। मगर आंखें मत खोलना। रात भर वह आंखें बंद कर चलता रहा। प्रभात में उसे हवा का झोंका लगा और उसने आंखें खोल ली। उसने कौतूहल से पीछे की ओर देखा और यह जानना चाहा कि श्री देवी मां उसके पीछे आ रही हैं तो वहीं उसे एक अग्नि की ज्वाली दिखाई दी।
वह ज्वाला अंर्तध्यान हो गई। इसी दौरान आकाशवाणी हुई। जिसमें यह कहा गया कि तू ने जल्दी कर दी और अपनी आंखें खोल लीं ऐसे में अब मैं आगे नहीं जा सकती। इसके बाद वहां एक शिला प्रकट हुई। वह स्थल पहाड़ पर था। दुर्गम पहाड़ पर उसने मूर्ति स्थापना की। बाद में वह स्थल बहुत लोकप्रिय हुआ। धीरे - धीरे वहां आवश्यक व्यवस्थाऐं जुटाई जाने लगीं। आज यह लोकप्रिय तीर्थ स्थल बन गया है।