सृष्टि से भी ऊपर है कर्म का कानून
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धर्म के नाम पर इस दंगों को कई असामाजिक तत्‍वों द्वारा अपने व्यक्तिगत् एजेंडे को पूरा करने के लिए उकसाया जाता है और कई बार दूसरे समुदाय के लोगों के प्रति अपनी नफरत की भावना को बाहर निकालने के लिए भी ऐसे तत्व दंगो का सहारा लेते हैं। हिंसा के मुकाबले में लाचारी का भाव आना अहिंसा नहीं कायरता है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी कहा था कि अहिंसा को कायरता का साथ नहीं मिलाना चाहिए। पिछले दिनों दुनिया के विभिन्न हिस्सों में बडे पैमाने पर हुए सांप्रदायिक दंगों, लूटपाट और बम विस्‍फोट की खबरों ने सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है।

वहीं दूसरी ओर जहां भारत् मंगल ग्रह पर सैटेलाइट भेजने के लिए अपनी पीठ थपथपा रहा है, वहां भी रोजाना हो रहे सांप्रदायिक दंगे सामाजिक ताने-बाने का गला घोट रहे हैं। इन सभी भयावह घटनाओं को देखते हुए मन में सहज ही यह प्रश्न उठता है कि क्‍या दंगे सचमुच होते हैं या किसी के द्वारा करवाए जाते हैं। भारत् जैसे संस्कृत् प्रधान एवं अहिंसा प्रेमी देश में या वाकई में कहीं भी दंगे करवाना या भडकाना इतना आसान कार्य है? हमारे सभी धर्म जो एकता, अहिंसा एवं सहिष्णुता का पाठ हमें पढ़ाते हैं, क्‍या उन्हीं धर्मों के नाम पर सांप्रदायिक दंगे करना जायज बात् है? कदापि नहीं।

देखा जाए तो दंगों जैसे अधार्मिक कृत्यों के साथ किसी भी धर्म या मजहब का कोई वास्‍ता नहीं होता है क्योंकि कोई भी धर्म किसी की हत्या या लूटपाट का मकसद नहीं देता, और इसलिए ही यह किसी भी दंगे का कारण हो ही नहीं सकता, तो फिर कौन इन सभी दंगों को करता है या करवाता है? सच्चाई तो यह है कि धर्म के नाम पर इस तरह के दंगों को कई असामाजिक तत्‍वों द्वारा अपने व्यक्तिगत् एजेंडे को पूरा करने के लिए उकसाया जाता है और कई बार दूसरे समुदाय के लोगों के प्रति अपनी नफरत की भावना को बाहर निकालने के लिए भी ऐसे तत्‍व दंगों का सहारा लेते हैं। सुनकर थोडा अजीब लगता है लेकिन यही सनातन सत्‍य है।

आजकल तो दंगों का दृश्‍य सही मायने में दर्शकों के साथ-साथ प्रसारकों के लिए भी "प्राइम टाइम भोजन" बन गए हैं। यपि उन सभी दृश्यों को देख यह सवाल पूछने को अवश्य ही मन करता है कि 'या यह सभी लोग अपने धर्म की महिमा के लिए यह सब कर रहे हैं? यों कि हमें तो बचपन से ही इकबाल का कहा हुआ शेर सदैव बुजुर्गों एवं शिक्षकों ने शिक्षा के रूप में पढाया हैं कि मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना, हिंदी हैं हम वतन हैं हिंदोस्‍तां हमारा।" क्या हम वाकई में बचपन की इस शिक्षा पर अमल कर रहे हैं या यदाकदा इस शेर को सुनकर इसका उपहास कर रहे हैं?

इसके लिए हम सभी को अपने भीतर झांककर देखना चाहिए और अपने आप से पूछना चाहिए कि कुछ गिने-चुने राह भूले लोगों के बहकावे में आकर और उनकी बातों में फंसकर हम उन संतों व पैगबरों के आदर्शों को, जिन्होंने हमें सद्भाव और मैत्री की शिक्षा दी, उसे भूलते तो नहीं जा रहे। सच तो ये है कि आज हम अवतारों और पैगबरों के नाम पर आडंबर तो बहुत करते हैं लेकिन उनके मूल ध्‍येय से भटकते जा रहे हैं। याद रखें, जब तक हम आपस में भाईचारा रखते हुए सबसे प्रेम का व्यवहार नहीं रखेंगे तब तक 'सर्वधर्म समभाव और अहिंसा परमोधर्म" का अर्थ हम दुनिया के समक्ष स्पष्ट नहीं कर पाएंगे। एक परमात्मा की संतान हैं। इसी भावना से निर्मित् होगा सार्वभौमिक सद्भाव का वातावरण।

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