सबसे पहले ब्रिटिश हाउस ऑफ कामंस का सदस्य बनने वाले भारतीय की अनसुनी दास्ताँ
सबसे पहले ब्रिटिश हाउस ऑफ कामंस का सदस्य बनने वाले भारतीय की अनसुनी दास्ताँ
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जिस वक़्त अंग्रेज भारत में शासन कर रहे थे. उन दिनों ब्रिटेन की उनकी संसद का सदस्य बन जाना, किसी भी भारतीय के लिए लगभग असंभव था. वो भारत की सबसे शुरुआती पीढ़ी के ऐसे स्वाधीनता संग्राम के सेनानी थे, जो बुलंद तरीके से भारत के लोगों की हक की आवाज उठाते थे. वो पहले भारतीय थे, जिन्हें ब्रिटेन की संसद यानि हाउस ऑफ कामंस में सांसद के रूप में चुना गया था. दादाभाई नौरोजी का जन्म 4 सितम्बर 1825 को हुआ था. वो ब्रिटिशकालीन भारत के पारसी बुद्धिजीवी, जिन्होंने शिक्षाशास्त्री, सामाजिक नेता के तौर पर काफी काम किया. उनका कपास का बड़ा कारोबार था. उन्हें 'भारत का वयोवृद्ध पुरुष' (Grand Old Man of India) कहा जाता है.

इसके साथ ही वो ये भी चाहते थे कि इंग्लैंड जाकर भारत और भारतीयों के पक्ष में सकारात्मक माहौल बनाएं. उन्होंने इंग्लैंड पढ़ने आए फीरोजशाह मेहता, मोहनदास कर्मचंद गांधी और मुहम्मद अली जिन्ना जैसे लोगों का प्रभावित ही नहीं किया बल्कि वक़्त पड़ने पर सहायता की या मार्गदर्शन दिया. दादाभाई ने इंग्लैंड में रहते हुए लगातार ब्रिटिश जनता को बताते थे कि किस प्रकार भारत में ब्रिटिश शासन के उत्पीड़न से भारतीय परेशानी में रहते हैं. अंग्रेजों को उनके पक्ष में खड़े होना चाहिए. वो ब्रिटेन की संसद में हमेशा भारतीयों की खराब स्थिति और वहां ब्रिटिश अधिकारियों के अय़्याशीपूर्ण जीवन के संबंध में लगातार ध्यान ही नहीं खींचते थे बल्कि संसद में चेतावनी देते थे कि इसके नतीजे अच्छे नहीं होंगे. हालांकि इसका असर कम ही पड़ता था. इसे लेकर एक किताब भी लिखी. वो चाहते थे कि भारतीय प्रत्येक हालत में स्वतंत्रता संग्राम से जुडे़ं. वो इस बात से नाखुश रहते थे कि पारसी आजादी की जंग से दूर रहते हैं.

इसमें कोई संदेह नहीं कि हाउस ऑफ कामंस में उनके भाषण बहुत ध्यान से सुने जाते थे. इसके लिए वो काफी मेहनत करते थे. वे प्रयास करते थे कि सही तथ्यों, आंकड़ों और घटनाओं का सही सही हवाला दे पाएं. वो पहले व्यक्ति थे जिन्होंने भारत के स्वराज्य की बात कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन (1906) में की थी. उन्होंने साफ कहा कि हम याचना नहीं कर रहे बल्कि हमें इन्साफ चाहिए. 30 जून 1917 को मुंबई में दादाभाई की मृत्यु हो गई. किन्तु उनका संघर्ष बेकार नहीं गया. ब्रिटिश शासन में भारत में भी धीरे धीरे हालात बदलने लगे. काफी बदलाव किये गए. प्रशासनिक सेवाओं में अधिकाधिक भारतीय सहयोग और ब्रिटिश साम्राज्य में भारत में उत्तरदायी शासन का मार्ग प्रशस्त हुआ.

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