वोट के बदले नोट मामले में क्या बदल जाएगा 1998 का फैसला? जानिए क्या है मामला
वोट के बदले नोट मामले में क्या बदल जाएगा 1998 का फैसला? जानिए क्या है मामला
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यदि कोई विधायक या सांसद पैसे लेकर सदन में भाषण या वोट दे तो क्या उस पर मुकदमा चलेगा या फिर इस तरह के रिश्वत वाले केस में बतौर जनप्रतिनिधि हासिल प्रिविलेज (विशेषाधिकार) के तहत कानूनी कार्रवाई से छूट मिलने वाली है? 7 जजों की संविधान पीठ आज इस पर अपना फैसला सुनाने वाली है. ‘राजनीति में नैतिकता’ के सवाल पर सुप्रीम कोर्ट ने इसको बेहद महत्त्वपूर्ण केस भी कहा गया है.

बीते वर्ष 5 अक्टूबर को दो दिन की सुनवाई के उपरांत सर्वोच्च अदालत ने ‘सीता सोरेन बनाम भारत सरकार’ केस में निर्णय सुरक्षित रख लिया था. तकरीबन 5 माह के उपरांत आज डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ ये तय करने वाली है कि सर्वोच्च अदालत ही का साल 1998 का आदेश दुरुस्त था या नहीं? CJI डी वाई चंद्रचूड़ के अलावा जस्टिस एएस बोपन्ना, जस्टिस एमएम सुंदरेश, जस्टिस पीएस नरसिम्हा, जस्टिस जेबी पारदीवाला, जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच ने इस मामले में सुनवाई भी की थी.

1998 का फैसला क्या पलट जाएगा?: करीब 25 वर्ष पहले सर्वोच्च अदालत ने ‘पीवी नरसिम्हा राव बनाम CBI केस’ में सदन में ‘वोट के बदले नोट’ केस में सांसदों को मुकदमे से छूट तक की बात बोली है. बहुमत के निर्णय में 5 जजों की पीठ ने तब पाया कि सांसदों को अनुच्छेद 105 (2) और 194(2) के तहत सदन के अंदर दिए गए किसी भी भाषण और वोट के बदले आपराधिक मुकदमे से छूट मिली है.

एक दूसरे केस की वजह से ‘सदन में वोट के बदले नोट’ का निर्णय पुनर्विचार के लिए सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है. पिछले वर्ष 20 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने मुकदमेबाजी से छूट वाले 1998 के निर्णय पर फिर से विचार करने की बात भी बोली है. 1998 का निर्णय चूंकि 3:2 की बहुमत से 5 जजों की बेंच ने दे दिया था. इसलिए उस फैसले पर पुनर्विचार कोई बड़ी बेंच ही कर सकती थी. लिहाजा 7 जजों की बेंच अस्तित्व मे आई और उसने अगले ही माह सुनवाई पूरी कर ली. बीते वर्ष इंडियन गवर्नमेंट का पक्ष सुप्रीम कोर्ट में अटॉर्नी जनरल, सॉलिसिटर जनरल ने रखा था जबकि अदालत की सहायता के लिए एमिकस क्यूरी के तौर पर पीएस पटवालिया भी पेश हुए.

इस मसले पर 1993 से लेकर अब तक करीबन 30 बरस चली अदालती कार्रवाई के दौरान एक कॉमन कड़ी झारखंड मुक्ति मोर्चा और शिबू सोरेन का परिवार रहा.. 1993 मामले में CBI ने शिबू सोरेन को रिश्वत कांड में अपराधी माना था. जबकि सुप्रीम कोर्ट में हालिया सुनवाई उनकी बहू सीता सोरेन से जुड़े घूसकांड को लेकर हुई.

शिबू सोरेन मामला और सुप्रीम कोर्ट: 1991 का आम चुनाव हुआ. परिणामों में कांग्रेस पार्टी सबसे बड़ी राजनीतिक दल के तौर पर उभर गई. नरसिम्हा राव की सरकार बनी. पर जुलाई 1993 के मॉनसून सत्र के बीच राव की सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव भी पेश किया गया. शिबू सोरेन और उनकी पार्टी के चार सांसदों पर सनसनीखेज इल्जाम लगे कि उन्होंने रिश्वत लेकर लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव के खिलाफ वोटिंग की.

CBI ने इन सांसदों के विरुद्ध कार्रवाई शुरू की लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 105(2) के अंतर्गत उन्हें कानूनी कार्रवाई से मिली छूट का हवाला देते हुए इस केस ही को रद्द कर डाला. अदालत ने कहा कि अनुच्छेद 105(2) और अनुच्छेद 194(2) का मकसद ही ये है कि संसद और राज्य की विधानसभाओं के सदस्य बगैर किसी चिंता या डर के स्वतंत्र माहौल में भाषण या फिर वोट भी दे पाएं.

सीता सोरेन मामला और सुप्रीम कोर्ट: ये केस 2012 राज्यसभा चुनाव का बताया जा रहा है. सीता सोरेन तब जामा सीट से विधायक थीं. सीता सोरेन पर इल्जाम लगा कि उन्होंने चुनाव में वोट देने के लिए रिश्वत ली. सीता सोरेन पर आपराधिक केस दर्ज किया गया है. उन्होंने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और मामला रद्द करने की मांग की मगर उच्च न्यायालय ने उनकी अपील खारिज भी कर डाला. 17 फरवरी, 2014 के आदेश में रांची हाईकोर्ट ने आपराधिक मामले को रद्द करने से मना कर दिया है.

हाईकोर्ट के आदेश के विरुद्ध सीता सोरेन ने सुप्रीम कोर्ट में गुहार भी लगा दी थी. सीता सोरेन ने 1998 के निर्णय का हवाला देते हुए बोला है कि जिस तरह उनके ससुर को कानूनी कार्रवाई से छूट मिली थी, देश का संवैधानिक प्रावधान उन्हें भी सदन में हासिल विशेषाधिकार (प्रिविलेज) के तहत कानूनी कार्रवाई से छूट भी प्रदान करती है. वाकई ऐसा है क्या? सुप्रीम कोर्ट आज इस प्रश्न का जवाब दे देगी. कोर्ट का 1998 के निर्णय को बरकरार रखना या फिर पलट देना सीता सोरेन समेत और कई जनप्रतिनिधियों का राजनीतिक भविष्य तय करने वाला है.

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