इसलिए होते हैं मंदिर पिरामिडनुमा आकार के
इसलिए होते हैं मंदिर पिरामिडनुमा आकार के
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प्राचीनकाल से ही किसी भी धर्म के लोग सामूहिक रूप से एक ऐसे स्थान पर प्रार्थना करते रहे हैं, जहां पूर्ण रूप से ध्यान लगा सकें, मन एकाग्र हो पाए या ईश्वर के प्रति समर्पण भाव व्यक्त किया जाए इसीलिए मंदिर निर्माण में वास्तु का बहुत ध्यान रखा जाता है। यदि हम भारत के प्राचीन मंदिरों पर नजर डालें तो पता चलता है कि सभी का वास्तुशिल्प बहुत सुदृढ़ था। जहां जाकर आज भी शांति मिलती है।

यदि आप प्राचीनकाल के मंदिरों की रचना देखेंगे तो जानेंगे कि सभी कुछ-कुछ पिरामिडनुमा आकार के होते थे। शुरुआत से ही हमारे धर्मवेत्ताओं ने मंदिर की रचना पिरामिड आकार की ही सोची है। ऋषि-मुनियों की कुटिया भी उसी आकार की होती थी। हमारे प्राचीन मकानों की छतें भी कुछ इसी तरह की होती थीं। बाद में रोमन, चीन, अरब और यूनानी वास्तुकला के प्रभाव के चलते मंदिरों के वास्तु में परिवर्तन होता रहा।

मंदिर पिरामिडनुमा और पूर्व, उत्तर या ईशानमुखी होता है। कई मंदिर पश्चिम, दक्षिण, आग्नेय या नैऋत्यमुखी भी होते हैं, लेकिन क्या हम उन्हें मंदिर कह सकते हैं? वे या तो शिवालय होंगे या फिर समाधिस्थल, शक्तिपीठ या अन्य कोई पूजास्थल।

मंदिर के मुख्यत: उत्तर या ईशानमुखी होने के पीछे कारण यह है कि ईशान से आने वाली ऊर्जा का प्रभाव ध्यान-प्रार्थना के लिए अतिउत्तम माहौल निर्मित करता है। मंदिर पूर्वमुखी भी हो सकता है किंतु फिर उसके द्वार और गुंबद की रचना पर विशेष ध्यान दिया जाता है।

प्राचीन मंदिर ध्यान या प्रार्थना के लिए होते थे। उन मंदिर के स्तंभों या दीवारों पर ही मूर्तियां आवेष्टित की जाती थीं। मंदिरों में पूजा-पाठ नहीं होता था। यदि आप खजुराहो, अजंता-एलोरा, कोणार्क या दक्षिण के प्राचीन मंदिरों की रचना देखेंगे तो जान जाएंगे कि मंदिर किस तरह के होते हैं। ध्यान या प्रार्थना करने वाली पूरी जमात जब खत्म हो गई है तो इन जैसे मंदिरों पर पूजा-पाठ का प्रचलन बढ़ा। पूजा-पाठ के प्रचलन से मध्यकाल के अंत में मनमाने मंदिर बने। मनमाने मंदिर से मनमानी पूजा-आरती आदि कर्मकांडों का जन्म हुआ, जो वेदसम्मत नहीं माने जा सकते।

धरती के दो छोर हैं- एक उत्तरी ध्रुव और दूसरा दक्षिणी ध्रुव। उत्तर में मुख करके पूजा या प्रार्थना की जाती है इसलिए प्राचीन मंदिर सभी मंदिरों के द्वार की दिशा पर विशेष ध्यान दिया जाता है पूर्व और उत्तर के बीच या पूर्व में होते थे। हमारे प्राचीन मंदिर वास्तुशास्त्रियों ने ढूंढ-ढूंढकर धरती पर ऊर्जा के सकारात्मक केंद्र ढूंढे और वहां मंदिर बनाए।

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