जानिए क्यों तुलसी का शालिग्राम से हुआ था विवाह? जानिए कारण
जानिए क्यों तुलसी का शालिग्राम से हुआ था विवाह? जानिए कारण
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शास्त्रों में देवउठनी एकादशी को बेहद बड़ी एकादशी माना गया है। कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवउठनी एकादशी, देवोत्थान एकादशी तथा प्रबोधनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। इस दिन प्रभु श्री विष्णु चार महीने की योग निद्रा से जागते हैं। इस दिन से ही मांगलिक कार्यों का भी आरम्भ हो जाता है। इस ​बार देवउठनी एकादशी 14 नवंबर रविवार के दिन पड़ रही है। इस दिन प्रभु श्री विष्णु के शालिग्राम स्वरूप का विवाह भी तुलसी के साथ कराया जाता है। तुलसी नारायण को अति प्रिय हैं। धार्मिक प्रथा है कि निद्रा से जागने के पश्चात् नारायण सबसे पहले तुलसी की पुकार सुनते हैं। इस वजह से लोग इस दिन तुलसी का भी पूजन करते हैं तथा मनोकामना मांगते हैं। यहां जानिए तुलसी का शालिग्राम से विवाह कराने का कारण।।।

ये है पौराणिक कथा:-


शिवपुराण की कथा के मुताबिक, महादेव के क्रोध के तेज से एक तेजस्वी दैत्य बालक ने जन्म लिया, जिसे आगे चलकर दैत्यराज जलंधर बोला गया। जलंधर का विवाह वृंदा के साथ हुआ था। वृंदा पतिव्रता स्त्री थी। जलंधर को वरदान प्राप्त था कि जब तक उसकी बीवी का सतीत्व नष्ट नहीं होता, तब तक उसकी मौत नहीं हो सकती। जलंधर ने चारों ओर हाहाकार मचा रखा था। उसने अपने पराक्रम से स्वर्ग को जीत लिया था तथा अपनी शक्ति के अहंकार में वो बुरी तरह चूर हो चुका था। एक दिन वो कैलाश पर्वत जा पहुंचा। वहां उसने महादेव के वध की कोशिश की। महादेव का अंश होने की वजह से वो महादेव के समान ही बलशाली था, साथ-साथ उसके पास वृंदा के सतीत्व की शक्ति भी थी। इस वजह से महादेव भी उसका वध नहीं कर पा रहे थे। तब सभी देवताओं ने नारायण से विनती की। तत्पश्चात, नारायण जलंधर का वेश धारण करके वृंदा के पास पहुंचे। वृंदा उन्हें अपना पति समझ बैठीं तथा पतिव्रता का बर्ताव करने लगीं। इससे उसका सतीत्व भंग हो गया तथा ऐसा होते ही वृंदा का पति जलंधर युद्ध में हार कर मारा गया।

वही नारायण की लीला का पता चलने पर वृंदा क्रोधित हो गई तथा उन्होंने नारायण को पाषाण होने का श्राप दे दिया। तत्पश्चात, नारायण पत्थर बन गए। ईश्वर के ​पत्थर बन जाने से सृष्टि में असंतुलन होने लगा। इसके पश्चात् सभी देवता वृंदा के पास पहुंचे तथा उनसे नारायण को श्राप मुक्त करने की विनती करने लगे। तब वृंदा ने उन्हें श्राप मुक्त कर दिया तथा खुद आत्मदाह कर लिया। जहां वृंदा भस्म हुईं, वहां तुलसी का पौधा उग आया। तब नारायण ने कहा कि नारायण ने कहा कि वृंदा, तुम अपने सतीत्व की वजह से मुझे लक्ष्मी से भी ज्यादा प्रिय हो गई हो। तुम्हारा श्राप साकार करने के लिए मेरा एक रूप पाषाण के तौर पर धरती पर रहेगा, जिसे शालिग्राम के नाम से जाना जाएगा। मेरे इस रूप में तुम हमेशा मेरे साथ रहोगी। मैं बगैर तुलसी जी के प्रसाद स्वीकार नहीं करूंगा। तब से तुलसी को दैवीय पौधा मानकर उनकी पूजा की जाने लगी तथा देवोत्थान एकादशी के दिन तुलसी का शालीग्राम के साथ विवाह की परंपरा आरम्भ हो गई।

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