भारत की राजनीति काफी उथल पुथल भरी रही है लेकिन राजशाही से लेकर लोकशाही के ऐतिहासिक सफर तक प्रजा का दमन करने वाले नेताओं को सत्ता से अपदस्थ होना पड़ा है फिर चाहे वह मगध महाजनपद का राजा धनानंद हो या फिर स्वतंत्र भारत की महिला प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी हर किसी को प्रजा और प्रजातंत्र की आवाज़ को कुचलने का खामियाजा भुगतना पड़ा है। हालांकि देश का यह राजनीतिक सफरनामा अब काफी बदल गया है। पहले जहां देश सेवा की भावना से चुनाव लड़ा जाता था और प्रचार के लिए फंड का अधिक महत्व नहीं रह जाता था वहीं अब सारा खेल फंडिंग और प्रचारतंत्र का हो गया है। जिस तरह से गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए योग्य बनाया गया और यूपीए को एक असफल गठबंधन बताकर हाशिये पर डाल दिया गया वह सब प्रचारतंत्र की मजबूती का ही खेल है। मगर इन सबमें एक ही बात एक जैसी है कि प्रजातंत्र को न साधने वाले प्रधान या राजनीतिक दल को मुंह की खानी पड़ी है।
भारतीय स्वतंत्रता से पहले यदि हम चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल की बात करते हैं तो भी जिस तरह से सत्ता के मद में चूर धनानंद को पदच्युत कर चाणक्य ने अपने शिष्य चंद्रगुप्त मौर्य को सम्राट बनाया यह प्रजातंत्रात्मक विचार का ही परिणाम है। यही नहीं पराधीन भारत में भी ब्रिटिश हुकूमत के लिए 1857 के संग्राम से लेकर कई आंदोलन हुए इन सभी में प्रजा के हित की बात कही गई थी। यही नहीं स्वतंत्र भारत में जब सत्ता की बागडोर प्रधानमंत्री स्व. जवाहरलाल नेहरू के हाथ से निकलकर नेहरू गांधी परिवार की ओर जाने लगी तो प्रारंभ में देश की प्रथम महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की जमकर सराहना की गई लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल के कारण उन्हें कठिनाईयों का सामना भी करना पड़ा।
इस सिलसिले में वर्ष 1975 के आपातकाल की घोषणा और विरोधी नेताओं के यातनापूर्ण दमन के साथ ही इंदिरा गांधी की पेशानी पर बल पड़ने लगे। इस दौरान जेपी नारायण ने सत्ता विरोधी लहर की कमान संभाली और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लिए मुश्किल कर दी। जेल में तबियत खराब होने के दौरान 7 माह बाद बाहर आए जेपी ने मोर्चा संभाला और युवा जेपी से बड़ी संख्या में प्रभावित हो रहे थे। 5 जून 1974 से पूर्व वह केवल प्रदर्शनभर था। तो दूसरी ओर जनआंदोलन में बदलाव हो गया। जेपी के प्रदर्शन में सबसे ज्यादा विद्यार्थियों और युवाओं ने भागीदारी की। जेपी द्वारा घोषणा की गई कि भ्रष्टाचार मिटाने के साथ बेरोजगारी दूर करना शिक्षा में क्रांति लाए जाने और अच्छे शासन तंत्र देने को आधार बनाया गया। इस आंदोलन ने भारतीय राजनीति की दिशा बदल दी। 1977 में आम चुनाव में जेपी की आंधी ने पूर्व प्रधानमंत्री स्व. गांधी को सत्ता से बेदखल कर दिया।
हालांकि इस दौर में भी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर राजनारायण ने सरकारी तंत्र का अपने प्रचार प्रसार के लिए गलत उपयोग करने और भ्रष्टाचार करने का आरोप लगाया था। अर्थात् स्व. इंदिरा गांधी के कार्यकाल में भी सरकारी तंत्र का राजनीतिक प्रचार प्रसार के लिए दुरूपयोग होता था हालांकि अंतर यह था कि तब नोट के बदले वोट कांड जैसी बातें नहीं होती थीं लेकिन उस दौर में उपहार देने का चलन भी था। आज के दौर में आप राष्ट्रीय राजनीति में एक अच्छे विकल्प के तौर पर सामने आई लेकिन राजनीतिक शतरंज की बिसात में इसके मोहरे पिटते चले गए और यह दिल्ली तक सीमित हो गई। इस पार्टी पर भी निरंकुशता और भ्रष्टाचार के आरोप लगे। दिल्ली के कानून मंत्री जितेंद्र सिंह तोमर इसके एक उदारहरण के तौर पर देखे जाते हैं। हालांकि अब राजनीति फंड आधारित हो गई है अब तो सारा दारोमदार पैसे पर हो गया।
कई बार चुनाव में पार्टियां टिकट ही मालदार व्यक्ति को देती हैं और चुनाव खर्च उसी पर निर्भर होता है। जब प्रत्याशी चुनावी हलफनामे भरते हैं तो उनकी संपत्तियां भी बड़े पैमाने पर सामने आती है। यदि हम लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार की बात करें तो करीब 300 अरब रूपए विभिन्न तरह के प्रचार के लिए खर्च किए गए। यही नहीं 30 हजार करोड़ रूपए का यह हिस्सा अज्ञात स्त्रोत के लिए खर्च किया गया। मोदी प्रचार के लिए जहां भी जाते विशेष हेलिकाॅप्टर और प्लेन का उपयोग होता फिर। देशभर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की थ्रीडी सभा और चाय पार्टी का भी आयोजन किया जाता था। व्यावसायिक जेट प्लेन के लिए करीब ढाई से 4 करोड़ तक के व्यय का अनुमान लगाया गया।
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद के लिए ताजपोशी करने के लिए राजनीतिक परामर्शदात्री फर्मों पर 800 करोड़ रूपए चुनाव प्रचार की रणनीति पर भी जमकर खर्च हुआ है। आज़ादी के बाद प्रचार तंत्र तो चुनाव और राजनीति पर हावी हुआ ही है लेकिन भारत निर्वाचन आयोग ने भी अपनी ओर से निष्पक्ष चुनाव करवाने में कसर नहीं छोड़ी है। अब पोलिंग बूथ लूटने जैसी घटनाऐं नहीं होतीं। ईवीएम को अपनाए जाने से चुनावी प्रक्रिया बेहद सरल हो जाती है तो दूसरी ओर अब बैलेट पर फर्जी ठप्पे लगाने की परेशानी नहीं होती।
वोटर लिस्ट से मिलान और ईलेक्ट्राॅनिक पद्धति से इसकी गणना बेहद आसान हो जाती है। मगर राजनीति में रसूख और दबंगई आज भी जारी है। बाहुबलियों का अपना जोर है। कई बार ऐसा होता है कि इनके शोर के बिना दिल्ली के गलियारे में वोट के लिए माथा पच्ची करने वाली प्रमुख पार्टियां भी कई राज्यों में टिक नहीं पाती ऐसे में राजनीति और अपराधतंत्र आज भी कहीं कहीं पर साथ - साथ नज़र आते हैं। ऐसे में बहरहाल समय बदलने के साथ लोकतंत्र के महासमर का स्वरूप भी बदला है। आदर्शवाद और सादगी के दौर से निकलकर अब चुनावी दल प्रचारतंत्र की कठपुतलियां बन गए हैं। मगर जनता लगातार समझदार हो रही है। दंबग, सवर्ण, दलित, जाति की राजनीति के बाद भी वोट उसी को मिलता है जो विकासवादी होता है।