स्वर्ग प्राप्ति के लिए करे मकरसंक्रांति व्रत
स्वर्ग प्राप्ति के लिए करे मकरसंक्रांति व्रत
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किसी ग्राम में ब्राम्हण और ब्राम्हणी रहते थे। उनकी तीन संतान थी,दो लड़के और एक विधवा पुत्री । अति निर्धन होते हुए भी सभी अतिथियों का पूर्ण सत्कार करते थे । नियमित अतिथि को भोजन करने के बाद ही भोजन करते,यह उनका नियम था।सयोग से अगर कोई अतिथि नहीं आता तो वह गाय को घास और चीटीँयो को दाना डालते थे। एक बार चौमासे के समय लगातार चार दिनों तक वर्षा होने से ब्राम्हण के आँगन में अतिथि तो क्या चिड़िया भी नहीं आई,ब्राम्हण अपने नियम का पक्का था, इसलिए उसको चार दिन तक उपवास करना पड़ा। ब्राम्हण की यह कठिन परीक्षा थी ,वह भूखा मरने लगा। इसलिए भगवान को उस पर दया आई और भगवान हंस और हंसनीं का रूप ले कर ब्राम्हण के आँगन में आगये थे। ब्राम्हण यह देख अति प्रस्सन हुआ। और घर में से दाने  लेकर आँगन में बिखेर दिए, लेकिन हंस और हंसिनी ने एक भी दाना नहीं खाया। ब्राम्हण यह सब देख कर काफी दुखी हुआ, तभी हंस की वाचा फूटी और वह बोला है ब्राम्हण हम तो मानसरोवर के हंस है। हम तो मोती ही खाते है। यह सुन ब्राम्हण दुखी हुआ,उसके घर में खाने के फेक होते थे,वह सच्चे मोती कहा से लाता। लेकिन ब्रम्हाणी हिम्मत कर गांव के झवेरी के यहाँ से सवा सेर मोती उधार लेकर आई,और आगाँ में बिखेर दिए। हंस और हंसिनी प्रसन्न हो कर खाने लगे और पानी पीकर उड़ गए । चार दिन से भूखे परिवार ने आज शांति से भोजन किया। 

खाने के बाद जब ब्राम्हण की बेटी बर्तन माजने आँगन में आई तो उसने देखा की कोने में एक मोती पड़ा हुआ है।उसने वह मोती उठाकार तुलसी के क्यारे में डाल  दिया।दूसरे दिन जब ब्राम्हणी  प्रातः कल तुलसी की पूजा करने गई तो देखा की तुलसी की हर डाल पर मोती की लड़ी लटक रही है।यह देख वह अचम्भे में पड़ गई,उसने सारा वृतांत ब्राम्हण को बताया। ब्रम्हाणी ने तुलसी क्यारे में से मोती बिन कर झवेरी के घर वापस दे आई। झवेरी पानीदार मोति देखकर खुश हुआ,उसके मोती के आगे  ब्राम्हण का मोती अधिक सुन्दर था। झवेरी ने उन मोतियों का एक हार बनवाकर अपनी बेटी को दे दिया। हार पहनकर जब झवेरी की बेटी राजकुमारी के साथ खेलने गई तो तो राजकुमारी ने उसके गले में झिलमिलाता हार देखा और ऐसा ही हार बनवाने की राजा से हठ करने लगी। राजा ने उसी समय झवेरी को बुलवाया और उसको वैसा ही एक और हार बनाने को कहा। इसमें झवेरी कुछ चिंतित हुआ,इस कारण की इस तरह के पानीदार मोती उसके पास नहीं थे। उसने राजा को सारा वृतांत सुनाया,राजा ने तुरंत ही ब्राम्हण के घर की जांच कराई तो पता चला की आँगन में एक तुलसी की क्यारी लगी हुए है।जिस पर पानीदार मोती उगते है,यह सुन  राजा ब्राम्हण के घर पंहुचा। और पानीदार मोती से सुसज्जित तुलसी की क्यारी को देखकर अचम्भित रह गया ।

राजा के मन में लालच ने जन्म ले लिया,वह सत्ता के जोर से पूरी तुलसी उठाकार ले जाने लगा। लेकिन राजा ने जैसे ही तुलसी को हाथ लगाया उसके हाथ चिपक गए। राजा पूरी तरह एकांत हो गया, यह देख कर राजपुरोहित बोला महाराज यह तो ब्राम्हण के आँगन का तुलसी की क्यारी है। उसके तप से पताप से सात के प्रताप से इसमें पानीदार मोती उगते है ।इसलिए आपको लालच नहीं करना चाहिए। आपको इससे छुटकारा चाहिए तो आप ब्राम्हण से क्षमा मांगिये। तभो आपको मुक्ति मिलेगी।इस बात को काफी समय हो गया था,ब्राम्हण ने अपने दोनों लडको को पड़ने के लिए काशी पहुचाया था। शिक्षा प्राप्त कर वह घर आगये थे। ब्राम्हण ब्रम्हाणी अब बूढ़े हो गए थे। इसलिए उन्होंने अपनी सम्पूर्ण सम्पति दोनों में बराबर बाट दी।और उसका तीसरा भाग अपनी बेटी को देने का निर्देश दिया। समय पूरा होने पर ब्राम्हण ब्राम्हणी  दोनों मृत्यु को प्राप्त हो गए। दोनों भाइयो ने माता पिता के जीवित रहते अपनी बहिन को अच्छा रखा।लेकिन माता पिता की मृत्यु के बाद एवं उनकी शादी के बाद वह बदल गए और बहन को तीसरा भाग देना बंद कर दिया। माता पिता ने अतिथि को जीमण एके बाद भोजन करने का जो नियम रखा था उसे भी भूल गए। 

परन्तु बहिन ने यह नियम कायम रखा।उसके आँगन से कोई भूखा नहीं जाता,वह काफी धार्मिक थी,यथा समय वह दान पुण्य भी करती रहती थी।उसने गोदान भी किया था।समय के साथ बहन बीमार रहकर मृत्यु को प्राप्त हुई।बहन के मृत्यु के समाचार सुनकर और मृत देह को श्मशान ले गए।बहन पवित्र थी उसकी आत्मा शुद्ध थी। इसलिए उसके द्वारा किया गया गो दान उसको क्षणमात्र में वैतरणी नदी के पार ले गया। उसके द्वारा किये गए जूता दान से उसको जरा भी गर्मी सहन न करनी पड़ी। वस्त्रदान से गरम सरियो पार कपडे लिपट गए।वह स्पर्श करती हुई पार उत्तर गई । अन्नदान करने से उसको भूख का आभास नहीं हुआ।उसकी आत्मा सभी विघ्न पार कर धर्मराज के पास आगई।धर्मराजा ने जब उसका हिसाब देखा तो कहा बहिन तूने खूब दान पुण्य किया।यह तेरा सचित है।लेकिन तूने मेरा व्रत नहीं किया।इसलिए तुझे वापस मृत्यु लोक में भेज रहा हूँ। तू मेरा व्रत करके आना। बहिन विचार में पड़ गई,और धर्म राजा से पूछने लगी आपका व्रत किस विधि से किया जाता है। मुझे समझाइये,धर्मराजा बोले मेरा व्रत मकरसंक्रांति से शुरू होकर छःमहीने चलता है। व्रत के समय प्रतिदिन घही का दीपक लगाकर और हाथ में चावल ले कर वर्त कथा सुनना या पड़ना चाहिए। फिर व्रत का उजवन करना चाहिए।

उजवन के समय बस का एक तोपला (छबड़ी) लेना ,उसमे सवा सेर ज्वार, सवा सेर मोती,सवासेर नजन की चाँदी की नाव,सीडी ,कपडे का टुकड़ा,एक जोड़ कपडे, और सोने या चाँदी की मेरी मूर्ति,यह सब योग्य ब्राम्हण को दान करना चाहिए।जो इस प्रमाण से नहीं कर सके वे यथाशक्ति दान देवे। नैवेघ में सवा सेर आते की सुकड़ी बनाकर उसके बराबर के चार भाग कर के एक भाग बच्चो को ,दूसरा भाग गे के ग्वाल को,तीसरा भाग ब्राम्हण को,चौथा भाग प्रसाद के रूप में सकुटुम्भ खावे। में आपका व्रत जरूर करुँगी बहिन की आत्मा ने कहा । उसी समय श्मशान में मृत शरीर की धार्मिक विधि चल रही थी। तभी लक्ष्मी जी बुढ़िया का रूप धारण कर पहुंची और बोली अभी आग मत लगाना। मुझे लड़की का मुह देखना है। यह कहते हुए मुख पार हाथ फेरते ही शव संजीवन हो उठा। बहिन आलस मरोड़ते हुए उठ गई। वह खड़े सभी लोग दृश्य देखकर अचम्भय रह गए।

बहिन को जीवित देख कर भाई भी खुश हुए और अपने घर ले जाने को तैयार हुए। लेकिन बहिन उस बुढ़िया को साथ लेकर अपने घर में रहने लगी। बहिन बोली अब मेरे व्रत  के प्रताप ने धर्मराजा दूत मुझे स्वर्ग ले जायेगे। माजी में आपको भी स्वर्ग ले जाऊगी ।बहिन ने धर्मराजा का व्रत पूरा कर व्रत  का उजवन किया।समय होते ही मृत्यु को प्राप्त हुई। और दूत उसे स्वर्ग में ले गए। बहन स्वर्ग सिधारी उस समय घर में दिए जल उठे साथ ही आँगन में कुमकुम के पगले पड़े और मोती के सातिये बने।यह देख सभी को आश्चर्य हुआ। इस प्रकार धर्मराजा के व्रत को करने से तथा दान पुण्य से बहिन को स्वर्ग में स्थान मिला। साथ में बुढ़िया को भी। है धर्मराजा जो आपका व्रत श्रद्धा पूर्वक करे,उस पार कृपा दृष्टि रखना और उसकी आत्मा को सद्गति देना।

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