दिल्ली चुनाव में बुरी हार से कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में मंथन की आवश्यकता!

एक बार फिर से दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की बहुत बुरी गत हुई है. दिल्ली चुनाव परिणाम से स्पष्ट हो गया है कि बदली राजनीति में सबसे कारगर साबित हो रहे 'नेतृत्व' और 'नैरेटिव' के दो सबसे अहम मानकों पर पार्टी खरी नहीं उतर पा रही है.

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मीडिया रिपोर्ट के अनुसार खुद को धर्मनिरपेक्षता की वैचारिक लड़ाई की सबसे मजबूत ताकत के रुप में पेश करने के बावजूद नेतृत्व और नैरेटिव की इस कमजोरी के कारण ही भाजपा का विकल्प बनने से कांग्रेस बार-बार चूक रही है. उसकी इस कमजोरी का फायदा क्षेत्रीय दलों और उसके क्षत्रपों को सीधे तौर पर मिल रहा है. राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद राष्ट्रीय नेतृत्व के विकल्प को लेकर पार्टी का लगातार जारी असमंजस काफी हद तक कांग्रेस के इस संकट के लिए जिम्मेदार है.

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राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में भाजपा को कमजोर करने की रणनीति के तहत आप की जीत में कांग्रेस नेता सांत्वना भले तलाश लें मगर सियासी हकीकत तो यही है कि दिल्ली में दुर्गति ने नेतृत्व को लेकर पार्टी की चुनौती को और बढ़ा दिया है. कांग्रेस ने नागरिकता संशोधन कानून-एनआरसी के खिलाफ भाजपा को दिल्ली के चुनाव में सीधी चुनौती दी. शाहीन बाग के विरोध प्रदर्शन, जामिया और जेएनयू के छात्रों के साथ हुई हिंसा-गुंडागर्दी के खिलाफ पार्टी ने केवल मुखर रही बल्कि उसके कई नेता समर्थन जताने के लिए इन सबके साथ खड़े भी हुए.

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