'छोड़ आए हम वो गालियां', उन गलियों को कभी भूल नहीं पाए गुलज़ार

गुलज़ार एक मखमली एहसास का नाम है, जिनकी कविता और गीतों की गर्माहट का एक सिरा उन अफसानों से होकर गुजरता है, जो बंटवारे की त्रासदी से निकल कर सामने आई हैं. उनकी कहानियों में 'लकीरें' दरअसल उसी पीड़ा को बयां करती हैं, जिस टीस को लिए हुए गुलज़ार साहब रातों रात दीना, पाकिस्तान अपनी गांव-गलियां सब छोड़कर चले आये थे.

'माचिस' का वो गीत तो आपको याद ही होगा.. 'छोड़ आये हम वो गलियां'.. ऐसे ही जज़्बातों से निकलकर गुलज़ार ने अपने शायर किरदार को गढ़ा है, जो अपनी जमीन को छोड़ कर आने के बाद और भी अधिक धारधार हो गया है. एक बिसरा दिए गए शहर का ऐसा पीछे छूट गया सा बचपन जो गुलज़ार की हर दूसरी कविता या गीत में किसी बिरहन की तरह नज़र आता है.

मोहब्बत, दोस्ती, रिश्ते, अधूरेपन, दर्द, रूहानी एहसास, आजज़ी, उदासी, भय , उत्साह, उमंग, सभी तरह के मनोभावों के कवि के रूप में गुलज़ार को पूरी दुनिया पहचानती है. वो अपने अशआर का एक सिरा पकड़कर दूसरे से भी उसी भाव के साथ मुख़ातिब हो सकते हैं. वो विचार के इस या उस ओर खड़े न भी हों, तो भी गहरे मानवीय भावों से हम सबको भीगाते रहने का कथानक रच सकते हैं. उनका होना इसी अर्थ में एक शायर, गीतकार, लेखक और फसाना लिखने वाले के किरदार में उन्हें बेहद प्रमाणिक बनाता है.

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