मुनव्वर राना की ये रचनाएं दिल छू लेगी आपका

मां पर कई रचनाएं लिखने वाले मशहूर शायर मुनव्वर राणा का देर रात कार्डियक अरेस्ट की वजह से देहांत हो गया. वह कई दिनों से बीमार थे. उनका लखनऊ के PGI में उपचार चल रहा था. उन्हें 9 जनवरी को तबीयत बिगड़ने के उपरांत ICU में भर्ती कराया गया था. राणा ने 71 वर्ष की आयु में अंतिम सांस ली. मुनव्वर को किडनी और हार्ट संबंधी कई समस्याएं थी. मुनव्वर राना उर्दू के उन शायरों में से एक हैं जिन्होंने अपनी शायरी, ग़ज़ल, नज़्म और कविताओं से हर किसी के दिल को छुआ है. आज हम इस लोकप्रिय शायर की याद में उन रचनाएं को पढ़ेंगे जो उनको पढ़ने वालों के दिल में बसीं हुई हैं.

किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से में मां आई- मुनव्वर राना

हंसते हुए मां-बाप की गाली नहीं खाते हंसते हुए मां-बाप की गाली नहीं खाते बच्चे हैं तो क्यूं शौक़ से मिट्टी नहीं खाते तुम से नहीं मिलने का इरादा तो है लेकिन तुम से न मिलेंगे ये क़सम भी नहीं खाते सो जाते हैं फ़ुटपाथ पे अख़बार बिछा कर मज़दूर कभी नींद की गोली नहीं खाते बच्चे भी ग़रीबी को समझने लगे शायद अब जाग भी जाते हैं तो सहरी नहीं खाते दावत तो बड़ी चीज़ है हम जैसे क़लंदर हर एक के पैसों की दवा भी नहीं खाते अल्लाह ग़रीबों का मदद-गार है 'राना' हम लोगों के बच्चे कभी सर्दी नहीं खाते

तुम ही नवाजते > तुम ही नवाजते तो क्यों इधर-उधर जाते तुम्हारे पास ही रहते क्यों छोड़कर जाते किसी के नाम से मंसूब ये इमारत थी बदन सराय नहीं था कि सब ठहर जाते

मिट्टी बैठ जाती है > बहुत पानी बरसता है तो मिट्टी बैठ जाती है,  न रोया कर बहुत रोने से छाती बैठ जाती है मुनव्वर मां के आगे यूं कभी खुल कर नहीं रोना  जहां बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती

पत्थर के होंठ > कल रात बारिश से जिस्म और आंसुओं से चेहरा भीग रहा था उस के ग़म की पर्दा-दारी शायद ख़ुदा भी करना चाहता था लेकिन धूप निकलने के ब'अद जिस्म तो सूख गया लेकिन आंखों ने क़ुदरत का कहना मानने से भी इंकार कर दिया उस के उदास होंट पत्थर के हो गए थे और पत्थर मुस्कुरा नहीं सकते

मेरे स्कूल कविता- मुनव्वर राना > मेरे स्कूल मिरी यादों के पैकर सुन ले  मैं तिरे वास्ते रोता हूं बराबर सुन ले  तेरे उस्तादों ने मेहनत से पढ़ाया है मुझे  तेरी बेंचों ने ही इंसान बनाया है मुझे  ना-तराशीदा सा हीरा था तराशा तू ने  ज़ेहन-ए-तारीक को बख़्शा है उजाला तू ने  इल्म की झील का तैराक बनाया है मुझे  ख़ौफ़ को छीन के बेबाक बनाया है मुझे  तुझ से शफ़क़त भी मिली तुझ से मोहब्बत भी मिली  दौलत-ए-इल्म मिली मुझ को शराफ़त भी मिली  शफ़्क़तें ऐसी मिली हैं मुझे उस्तादों की  परवरिश करता हो जैसे कोई शहज़ादों की  तेरी चाहत में मैं इस दर्जा भी खो जाता था  तेरी बेंचों पे ही कुछ देर को सो जाता था 

 खुद कलामी कविता- मुनव्वर राना > क्या ज़रूरी है कि हम फ़ोन पे बातें भी करें  क्या ज़रूरी है कि हर लफ़्ज़ महकने भी लगे  क्या ज़रूरी है कि हर ज़ख़्म से ख़ुशबू आए  क्या ज़रूरी है वफ़ादार रहें हम दोनों  क्या ज़रूरी है दवा सारी असर कर जाए  क्या ज़रूरी है कि हर ख़्वाब हम अच्छा देखें  क्या ज़रूरी है कि जो चाहें वही हो जाए  क्या ज़रूरी है कि मौसम हो हमारा साथी  क्या ज़रूरी है सफ़र में कहीं साया भी मिले  क्या ज़रूरी है तबस्सुम यूंही मौजूदरहे  क्या ज़रूरी है हर इक राह में जुगनू चमकीं  क्या ज़रूरी है कि अश्कों को रवानी भी मिले  क्या ज़रूरी है कि मिलना ही मुक़द्दर ठहरे  क्या ज़रूरी है कि हर रोज़ मिलें हम दोनों  हम जहां गांव बसाएं वहां इक झील भी हो  क्या ज़रूरी है मोहब्बत तिरी तकमील भी हो 

अड़े कबूतर उड़े ख़याल- मुनव्वर राना इक बोसीदा मस्जिद में दीवारों मेहराबों पर और कभी छत की जानिब, मेरी आँखें घूम रही हैं जाने किस को ढूढ़ रही हैं, मेरी आँखें रुक जाती हैं लोहे के उस ख़ाली हुक पर, जो ख़ाली ख़ाली नज़रों से हर इक चेहरा देख रहा है, इक ऐसे इंसान का शायद जो इक पंखा ले आएगा, लाएगा और दूर करेगा मस्जिद की बे-सामानी को, ख़ाली हुक की वीरानी पर मैं ने जब उस हुक को देखा, मेरी नन्ही फूल सी बेटी मेरी आंखों में दौड़ आई, भोली मां ने उस की अपनी प्यारी राज-दुलारी बेटी के, दोनों कानों को अपने हाथों से छेद दिया है, फूलों जैसे कानों में फिर नीम के तिनके डाल दिए हैं, उम्मीदों आसों के सहारे दिल ही दिल में सोच रही है, जब हम को अल्लाह हमारा थोड़ा सा भी पैसा देगा, बेटी के कानों में उस दिन बालियां होंगी बुंदे होंगे, मैं ने अनथक मेहनत कर के पंखा एक ख़रीद लिया है, मस्जिद के इस ख़ाली हुक को मैं ने पंखा सौंप दिया है, हुक में पंखा देख के मुझ को होता है महसूस कि जैसे, मेरी बेटी बालियां पहने घर की छत पर घूम रही है. 

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