कर लेता हूँ बंद आँखें मैं दीवार से लग कर, बैठे है किसी से जो कोई प्यार से लग कर. क्या तकल्लुफ़ करें ये कहने में, जो भी ख़ुश है हम उस से जलते हैं. शब-ए-विसाल है गुल कर दो इन चराग़ों को, ख़ुशी की बज़्म में क्या काम जलने वालों का. अपनी सारी काविशों को राएगाँ मैं ने किया, मेरे अंदर जो न था उस को बयाँ मैं ने किया. और इस से पहले कि साबित हो जुर्म-ए-ख़ामोशी, हम अपनी राय का इज़हार करना चाहते हैं. दिल पे कुछ और गुज़रती है मगर क्या कीजे, लफ़्ज़ कुछ और ही इज़हार किए जाते हैं. दिल सभी कुछ ज़बान पर लाया, इक फ़क़त अर्ज़-ए-मुद्दआ के सिवा. एक दिन कह लीजिए जो कुछ है दिल में आप के, एक दिन सुन लीजिए जो कुछ हमारे दिल में है. हाल-ए-दिल क्यूँ कर करें अपना बयाँ अच्छी तरह, रू-ब-रू उन के नहीं चलती ज़बाँ अच्छी तरह. हाल-ए-दिल यार को महफ़िल में सुनाएँ क्यूँ-कर, मुद्दई कान इधर और उधर रखते हैं. इश्क़ के इज़हार में हर-चंद रुस्वाई तो है, पर करूँ क्या अब तबीअत आप पर आई तो है. इज़हार-ए-हाल का भी ज़रीया नहीं रहा, दिल इतना जल गया है कि आँखों में नम नहीं. तो क्या मौलवी ने बकरी से बलात्कार किया था? झुक नहीं सकते -अटल बिहारी वाजपेयी न आने की आहट -गुलज़ार