रमज़ान के लिए बेहतरीन ग़ज़ल

 

1. बरपा तिरे विसाल का तूफ़ान हो चुका  दिल में जो बाग़ था वो बयाबान हो चुका 

पैदा वजूद में हर इक इम्कान हो चुका  और मैं भी सोच सोच के हैरान हो चुका 

पहले ख़याल सब का था अब अपनी फ़िक्र है  दामन कहाँ रहा जो गरेबान हो चुका 

तुम ही ने तो ये दर्द दिया है जनाब-ए-मन  तुम से हमारे दर्द का दरमान हो चुका 

जो जश्न-वश्न है वो हिसार-ए-हवस में है  ये आरज़ू का शहर तो वीरान हो चुका 

औरों से पूछिए तो हक़ीक़त पता चले  तन्हाई में तो ज़ात का इरफ़ान हो चुका 

इक शहरयार शहर-ए-हवस को भी चाहिए  और मैं भी आशिक़ी से परेशान हो चुका 

कितने मज़े की बात है आती नहीं है ईद  हालाँकि ख़त्म अर्सा-ए-रमज़ान हो चुका 

मौसम ख़िज़ाँ का रास कब आया हमें 'शुजाअ'  जब आमद-ए-बहार का एलान हो चुका.

 

 

2. चलो ये तो हादसा हो गया कि वो साएबान नहीं रहा  ज़रा ये भी सोच लो एक दिन अगर आसमान नहीं रहा 

ये बता कि कौन सी जंग में मैं लहूलुहान नहीं रहा  मगर आज भी तिरे शहर में कोई मुझ को मान नहीं रहा 

ये नहीं कि मेरी ज़मीन पर कोई आसमान नहीं रहा  मगर आसमान कभी मिरे तिरे दरमियान नहीं रहा 

शब-ए-हिज्र ने हवस और इश्क़ के सारे फ़र्क़ मिटा दिए  कोई चारपाई चटख़ गई तो किसी में बान नहीं रहा 

सभी ज़िंदगी पे फ़रेफ़्ता कोई मौत पर नहीं शेफ़्ता  सभी सूद-ख़ोर तो हो गए हैं कोई पठान नहीं रहा 

न लबों पे ग़म की हिकायतें न वो बे-रुख़ी की शिकायतें  ये इताब है शब-ए-वस्ल का कि मैं ख़ुश-बयान नहीं रहा 

इसी बे-रुख़ी में हज़ार रुख़ हैं पुराने रिश्ते के साहिबो  कोई कम नहीं है कि जान कर भी वो मुझ को जान नहीं रहा.

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