अहमद फ़राज़ की शायरियाँ

आँख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जाएगा.

आज हम दार पे खींचे गए जिन बातों पर क्या अजब कल वो ज़माने को निसाबों में मिलें.

आज इक और बरस बीत गया उस के बग़ैर जिस के होते हुए होते थे ज़माने मेरे.

आशिक़ी में 'मीर' जैसे ख़्वाब मत देखा करो बावले हो जाओगे महताब मत देखा करो.

अब और क्या किसी से मरासिम बढ़ाएँ हम ये भी बहुत है तुझ को अगर भूल जाएँ हम.

अब दिल की तमन्ना है तो ऐ काश यही हो आँसू की जगह आँख से हसरत निकल आए.

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें.

अब तक दिल-ए-ख़ुश-फ़हम को तुझ से हैं उमीदें ये आख़िरी शमएँ भी बुझाने के लिए आ.

अब तिरा ज़िक्र भी शायद ही ग़ज़ल में आए और से और हुए दर्द के उनवाँ जानाँ.

अब तिरे ज़िक्र पे हम बात बदल देते हैं कितनी रग़बत थी तिरे नाम से पहले पहले.

अब तो ये आरज़ू है कि वो ज़ख़्म खाइए ता-ज़िंदगी ये दिल न कोई आरज़ू करे.

अब उसे लोग समझते हैं गिरफ़्तार मिरा सख़्त नादिम है मुझे दाम में लाने वाला.

नाक में उंगली डालकर धोएं नहीं बल्कि उसी हाथों से खाना खाएं होगा फायदा

सरेआम नाक में ऊँगली डालना या जोर से डकार लेना, सिर्फ भारतीय कर सकते है ऐसा काम

88 बच्चों का पिता था ये राजा, सिर्फ निर्वस्त्र लोगों को ही दी जाती थी महल में एंट्री

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