कैसे शुरू हुई दही-चूड़ा खाने की परंपरा? जानिए इसकी कथा

मकर संक्रांति (Makar sankranti) एक ऐसा पर्व है जिस दिन सूर्यदेव की आराधना की जाती है और इस बहुत महत्व होता है। वही बिहार में मकर संक्रांति का त्यौहार धूमधाम से मनाया जाता है। यहां दही-चूड़ा एवं खिचड़ी खाने की प्रथा है। संस्कृति की यह कड़ी विश्व की सबसे शुरुआत की प्रथा है। इसे शुरुआत का प्रतीक माना गया है। पौष मास में जब सूर्य देव धनु राशि से मकर राशि में गमन करते हैं तब यह खगोलीय घटना संक्रांति कहलाती है। बहुत आरम्भ में यह केवल एक खगोलीय घटना थी, मगर वैदिक काल में कई घटनाओं ने इसे पवित्र बना दिया। पवित्रता का यह प्रतीक आज तक भारतीय समाज का अभिन्न अंग है। 

वही बिहार में दही चूड़ा खाने की प्रथा यहां उपजी वैदिक कथाओं का प्रभाव है। अभी हाल ही में सामने आया है कि झारखंड का सिंहभूम समुद्र से ऊपर आने वाला सबसे पहला भूखंड था। कहा जाता हैं कि जब मनु ने पृथ्वी पर बीज रोपकर खेती की शुरुआत की थी, तब अन्न उपजे। खीर सबसे पहले पकाया जाने वाला भोजन है, जिसे क्षीर पाक कहा गया। 

तत्पश्चात, दूध से दही बनाने की परंपरा विकसित हुई तो धान के लावे को इसके साथ खाया गया। भोजन को तले जाने के इंतजाम का आरम्भ तब नहीं हुआ था। महर्षि दधीचि ने सबसे पहले दही में धान मिलाकर भोजन का इंतजाम किया था। वही बिहार के सारण जिले में मौजूद है माँ अम्बिका भवानी मंदिर। सतयुग के वक़्त में यही ऋषि की तपस्थली थी। एक बार अकाल के वक़्त ऋषि ने माता को दही तथा धान का भोग लगाया था। तब देवी अन्नपूर्णा अवतार में प्रकट हुईं तथा अकाल ख़त्म हो गया। दही-चूड़ा खाने की प्रथा मिथिला से भी जुड़ी हुई है। धनुष यज्ञ के वक़्त मिथिला पहुंचे ऋषि मुनियों ने दही चूड़ा का भोज किया था। इतने बड़े आयोजन में ऋषियों के भोजन से इसे प्रसाद के रूप में लिया गया, तथा फिर दही चूड़ा की प्रथा चल पड़ी। 

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