महाराणा प्रताप: मेवाड़ का वो शेर, जिसने तमाम मुश्किलें झेलीं, लेकिन हार नहीं मानी

मेवाड़ के महाराजा महाराणा प्रताप ने राजपूतों की शान को एक ऐसी ऊंचाई तक पहुंचा दिया था, जिसकी मिसाल पूरी दुनिया में नहीं मिलती है. महाराणा प्रताप ने अपनी जिंदगी में कभी किसी गुलामी स्वीकार नहीं की और मुग़ल बादशाह अकबर से लोहा लेकर दुनिया को दिखा दिया है कि उन्हें महाराणा क्यों कहा जाता है. उन्होंने कभी मुगलों की अधीनता स्वीकार नहीं की और मेवाड़ से कई गुना ताकतवर मुगल सम्राट अकबर के साथ संघर्ष करते रहे.

माहाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 मेवाड़ के कुंभलगढ़ में हुआ था. उदय सिंह द्वितीय और महारानी जयवंता बाई के सबसे बड़े बेटे प्रताप के एक महायोद्धा और युद्ध रणनीति कौशल में माहिर थे. उन्होंने मेवाड़ की मुगलों के बार बार हुए हमलों से रक्षा की और अपनी आन बान के साथ कोई समझौता नहीं किया, कितनी ही विपरीत परिस्थितियां उनके जीवन में आईं, लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी. महाराणा  अपने पिता की गद्दी प्राप्त करने में अपने सौतेली माता रानी धीरबाई के विरोध का सामना करना पड़ा, क्योंकि वे चाहती थीं कि गद्दी उनके पुत्र कुंवर जगमाल को मिले, मगर पूरे राज्य के मंत्री और दरबारी प्रताप को गद्दी सौंपने के पक्ष में थे. इसके बाद जगमाल ने गुस्से में मेवाड़ छोड़ दिया. वो अजमेर जाकर अकबर के संपर्क में आए. अकबर ने उन्हें जहाजपुर की जागीर तोहफे में दे दी.

महाराणा प्रताप को भारत का सबसे शक्तिशाली योद्धा माना जाता है. उनका कद 7 फुट 5 इंच का था और बताया जाता है कि वे अपने साथ 80 किलो का भाला और दो तलवार रखते थे, जिनका वजन लगभग 208 किलो होता था. खुद उनके कवच का वजन 72 किलो था. कहा जाता है कि उनकी तलवार के एक ही वार से दुश्मन के घोड़े सहित दो टुकड़े हो जाया करते थे.

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