अग्निपथ: चाहे पूरा देश जल जाए, बस किसी तरह सत्ता मिल जाए...
अग्निपथ: चाहे पूरा देश जल जाए, बस किसी तरह सत्ता मिल जाए...
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देश एक बार फिर से उग्र आंदोलनों, हिंसा और आगज़नी की मार झेल रहा है, जिसका कारण सेना में भर्ती के लिए केंद्र सरकार द्वारा लाई गई अग्निपथ योजना को बताया जा रहा है। हालांकि, ये भी एक विडम्बना ही है कि सैनिक बनकर देश की सेवा करने का सपना देख रहे युवा ही देश को आग लगा रहे हैं। या फिर यूँ कहा जाए कि, अपनी राजनितिक रोटियां सेंकने के लिए भारत की पावन धरा को आग में झोंका जा रहा है। यह हर किसी के लिए सोचने वाली बात है कि, सेना में जाकर देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने की सोच रखने वाला युवा, क्या देश की ही सम्पत्तियों ट्रेन, बस, पुलिस स्टेशन आदि जला सकता है ? हाँ, उपद्रवी ये काम शौक से कर सकते हैं, जिन्हे देश से कोई मतलब नहीं, बस उन्हें अपने सियासी आकाओं का हुक्म पूरा करना है और वे कर भी रहे हैं। 

इस पूरे विवाद में कोचिंग संस्थानों की भी बड़ी भूमिका देखने को मिली है। बिहार और मध्य प्रदेश में कुछ कोचिंग संस्थानों के मालिकों को हिरासत में भी लिया गया है, जिन्होंने छात्रों को भड़काने का काम किया था। वहीं, विपक्ष भी सरकार को घिरते देख, आग में घी डालने का काम कर रहा है। राहुल गांधी से लेकर तेजस्वी यादव तक तमाम विपक्षी नेताओं द्वारा युवाओं को सड़कों पर उतरने और सरकार के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए उकसा रहे हैं। राहुल गांधी तो कृषि कानून वापसी का जिक्र करते हुए अग्निपथ योजना को भी वापस लेने की मांग कर रहे हैं। पूरी कांग्रेस सड़कों पर उतरी हुई है, जो पहले से ही प्रवर्तन निदेशालय (ED) द्वारा नेशनल हेराल्ड केस में राहुल से की जा रही पूछताछ का विरोध कर रही थी। लगे हाथों कांग्रेस ने 'अग्निवीर' के मुद्दे को भी लपक लिया और राहुल का समर्थन तथा अग्निपथ योजना का विरोध साथ-साथ चलने लगा। अब तो ये पता करना मुश्किल हो गया है कि, देश के कई राज्यों में उत्पात मचा रहे लोग, वाकई सेना में जाने की तैयारी कर रहे थे या वे किसी पार्टी के सदस्य होने के नाते अपना सियासी हित पूरा कर रहे हैं। विपक्ष पर लोगों को भड़काकर देश में आग लगवाने और माहौल खराब करने के ये आरोप निराधार नहीं हैं, पहले भी ऐसा कई बार देखा जा चुका है। बात की पुष्टि के लिए कुछ उदाहरण देख लेना जरूरी है :-

 नागरिकता संशोधन कानून यानी CAA:-

वो कहते हैं न कि, झूठ तब ही जीतता है, जब सत्य आवाज़ उठाना भूल जाता है। यहाँ भी सत्य मौन रहा और झूठ ने बस्तियां जला दी। 2019 में सरकार ये विधेयक लेकर आई थी, उद्देश्य था कि पड़ोसी मुल्कों, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में अपने धर्म का पालन करने की वजह से प्रताड़ित हो रहे लोगों को सम्मान भरी जिंदगी मिले, उनकी बहु बेटियों को सुरक्षा मिले और उन्हें अपना धर्म न त्यागना पड़े, जिसका उनके पूर्वज सदियों से पालन करते आए हैं। उस समय कहा जा रहा था कि पड़ोसी देशों में कोई प्रताड़ना नहीं हो रही है, लेकिन अफगानिस्तान में तालिबान राज आने के बाद पूरी दुनिया ने देखा कि किस तरह सिख वहां से श्री गुरुग्रंथ साहिब को अपने सिरों पर रखकर भारत आए, बांग्लादेश में दुर्गा पूजा के दौरान दंगे सबने देखे, पाकिस्तान का कट्टरपंथ जगजाहिर है। इन्ही सब से पीड़ित लोगों के लिए CAA लाया गया था,  लेकिन उसका मतलब कुछ और ही समझा दिया गया। इसे पेश इस तरह किया गया जैसे भारत सरकार मुस्लिमों को देश से बाहर करना चाहती है। इसके विरोध में कई महीनों तक दिल्ली बंधक बनी रही, सड़कों पर जाम लगे, आम लोगों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा, लेकिन राजनेता प्रदर्शनस्थलों पर जाकर अपना उल्लू सीधा करने में जुटे रहे। जबकि ये लड़ाई कोर्ट में भी कानूनी रूप से लड़ी जा सकती थी, जिसमे न्यायाधीश फैसला करते और देश के किसी आम नागरिक को समस्या न होती। मगर, यहां जिद थी, और वो जिद शांत हुई 53 निर्दोष लोगों की जान लेने के बाद। यहां हम दिल्ली दंगों की बात कर रहे हैं, जो सुनियोजित तरके से डोनाल्ड ट्रम्प की भारत यात्रा के दौरान भड़काए गए थे, ताकि दुनियाभर की मीडिया जब ट्रम्प का दौरा कवर करने में लगी हो, तभी उसे भारत भी जलता हुआ नज़र आए। लोकतंत्र में जीत-हार बहुमत से निर्धारित की जाती है, और CAA के समर्थन में जितने लोग थे, उसके 50 फीसद भी इसके विरोध में नहीं थे। लेकिन समर्थकों का कसूर बस ये था कि वो सड़कों पर नहीं उतरे, उन्होंने किसी आम आदमी को चोट नहीं पहुंचाई, उन्होंने 400 बार चाक़ू मारकर अंकित शर्मा की हत्या नहीं की, जिनका शव AAP पार्षद ताहिर हुसैन के घर के पास नाले से मिला। 

कृषि क़ानून-  

भारत में किसानों को जितनी इज़्ज़त और मान-सम्मान दिया जाता है, उतना शायद किसी और देश में नहीं, यहां तक कि भारत में कृषकों को अन्नदाता तक कहा जाता है, लेकिन इसके बाद भी देश का किसान ख़ुदकुशी करने और दयनीय जीवन जीने के लिए मजबूर हैं। किसानों की स्थिति में सुधार करने की मंशा से 2019 में सरकार कृषि कानून लेकर आई। लेकिन यहां भी अंबानी सबको गुलाम बना लेगा, अडानी सभी किसानों की जमीन खरीद लेगा का भ्रम फैलाकर किसानों को खेतों से निकालकर सड़क पर उतार दिया गया। बात सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची, कोर्ट ने एक समिति का गठन कर कृषि कानूनों की समीक्षा करने के काम पर लगा दी। यहां आंदोलन रुक जाना चाहिए था और रुक भी जाता, अगर राजनेता किसानों के कन्धों पर बन्दूक रखकर विधानसभा चुनावों का शिकार करने की कुत्सित योजना न बनाते। जहाँ चुनाव होते वहां विपक्षी नेता राकेश टिकैत को बुला लेते और किसानों के नाम पर अपनी सियासत चमकाने लगते और टिकैत भी वहां पर जाकर किसानों से अधिक सरकार को उखाड़ फेंकने का दम भरते। राजनेताओं का ये सिलसिला चलता रहा और इधर निर्दोष- बुजुर्ग किसान अपनी जान गंवाते रहे। किसानों की मौतें तो हुईं ही, साथ ही लाल किला हिंसा, सामूहिक बलात्कार, क़त्ल और बेअदबी का आरोप लगाकर बर्बरता करने का दाग भी किसान आंदोलन पर लगा। इस आंदोलन में अधिकतर पंजाब, हरियाणा और कुछ यूपी के किसान थे, बाकी पूरे देश में इसको लेकर अधिकांश सियासी दल ही विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। इधर, सुप्रीम कोर्ट की कमिटी कृषि कानूनों का फायदा-नुकसान पता करने में लगी थी, रिपोर्ट बनी और 21 मार्च 2021 को सर्वोच्च न्यायालय में जमा कर दी गई। सरकार इस फ़िराक़ में थी कि, सुप्रीम कोर्ट की रिपोर्ट के बाद ही सही, लेकिन किसान इसके फायदे को समझेंगे और आंदोलन वापस ले लेंगे। किसान समझ भी जाते, अगर राजनेता उन्हें समझने देते, उन्हें तो किसानों के रूप में एक बड़ा वोट बैंक दिखाई दे रहा था। 

सुप्रीम कोर्ट की इस कमिटी में कृषि विशेषज्ञ अशोक गुलाटी, डॉ. प्रमोद कुमार जोशी और अनिल घनवट सदस्य थे। सर्वोच्च न्यायालय ने 4 सदस्यीय टीम बनाई थी, लेकिन किसान नेता भूपिंदर सिंह मान ने इससे अपने आप को अलग कर लिया था। सुप्रीम कोर्ट में रिपोर्ट जमा होने के बाद निरंतर इसे सार्वजनिक किए जाने की मांग होने लगी, लेकिन रिपोर्ट को जनता के सामने पेश नहीं किया गया। आखिरकार, 700 किसानों की मौत और 12 लाख करोड़ रुपए का नुकसान होने के बाद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कृषि कानून वापस ले लिए। उनके शब्द थे, 'ये कानून किसानों के हित के लिए लाए गए थे और देश हित में वापस लिए जा रहे हैं।' समय गुजरा और सबकुछ सामान्य होने लगा, आख़िरकार 21 मार्च 2021 को सुप्रीम कोर्ट में जमा हुई रिपोर्ट मार्च 2022 में सामने आई, जिसमे बताया गया था कि, देश के 86 फीसद किसान संगठन इन कानूनों के पक्ष में हैं। हमें ग्रेटा, रेहाना, जैसे लोगों के ट्वीट और टूलकिट भर-भरकर दिखाए गए, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की रिपोर्ट दबा दी गई । यहां भी एक बड़ा समर्थक तबका केवल इसलिए हार गया क्योंकि, वह सड़कों पर नहीं उतरा, उसने दिल्ली की सरहदों को अवरुद्ध नहीं किया और न ही लाल किले पर उपद्रव मचाया। रिपोर्ट सामने आने के बाद SC की कमिटी के सदस्य अनिल घनवट ने कहा था कि, कानूनों को वापस लेकर मोदी सरकार ने बड़ी भूल की है। घनवट ने माना है कि इस रिपोर्ट से किसानों को कृषि कानूनों के फायदे के बारे में समझाया जा सकता था और इनको रद्द होने से रोका जा सकता था। लेकिन अगर विपक्ष हंगामा न करता तो संभव था कि, न 700 किसानों की जान जाती और न देश को बड़ा आर्थिक नुकसान झेलना पड़ता। 

अब अग्निपथ के लिए भी रचा जा रहा वही षड्यंत्र:- 

इस योजना की आलोचना या विरोध करने से पहले हर किसी को एक सवाल अपने आप से पूछना चाहिए, वो ये कि, क्या हमें अपनी सेना पर भरोसा नहीं है ? जल, थल, वायु तीनों सेनाओं के प्रमुख कभी TV पर आकर, तो कभी सेना के शिविर में जाकर खुद अग्निपथ योजना की जानकारी दे रहे हैं। यहां सेना प्रमुख खुद कह रहे हैं कि, ये योजना युवाओं के लिए लाभकारी है। लेकिन हमें सेना से अधिक विश्वास करना है  नेताओं की बातों पर, जिन्होंने बिना सोचे-समझे सीधे ही इस योजना को युवाओं का वर्तमान और भविष्य बर्बाद करने वाली बता डाला और प्रदर्शनकारियों से शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने की अपील करने की जगह आग में घी डालने का काम किया। जिन्होंने निम्न सियासी लाभ के लिए युवाओं को हिंसा की आग में झोंक दिया और रेलवे की 1000 करोड़ की संपत्ति जलकर खाक हो गई। जरा सोचिए, इन युवाओं में जिनका नाम पुलिस रिकॉर्ड में दर्ज हो गया और उन्हें फिर सेना में न लिया गया, तो उन युवाओं के भविष्य की जिम्मेदारी क्या नेता लेंगे ? जो अग्निवीरों के भविष्य को लेकर चिंतित हैं, उन्हें बता दें कि, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, असम की सरकारों ने राज्य पुलिस में अग्निवीरों को प्राथमिकता देने का ऐलान किया है। गृह मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय द्वारा अपनी भर्तियों में अग्निवीरों को 10 फीसद आरक्षण देने की घोषणा की गई है। समय गुजरने के साथ अग्निवीरों के लिए कई रास्ते खुलने लगेंगे। 

लेकिन अपनी दुकानें बंद होते देख कोचिंग संस्थानों ने भी छात्रों को भड़काने का काम किया। आखिर, जिस सैन्य भर्ती के नाम पर वो छात्रों से मोटी फीस वसूलते थे, उसमे छात्र 10वीं और 12वीं पास करने के बाद सीधे ही भर्ती हो जाएंगे तो इन कोचिंग संस्थानों में फीस कौन भरेगा। जिस तरह कृषि कानूनों से आढ़तियों की कमाई मर रही थी, उसी तरह इस योजना से सैन्य भर्ती के नाम पर कमाने वाले कोचिंग संस्थानों को भी अपनी दुकानें बंद होती नज़र आ रही हैं। आप खुद अपने आसपास के 22 से 25 वर्षीय युवाओं को देखकर आंकलन कर सकते हैं कि उनमे से कितने सेना की तरह अनुशासित और शारीरिक रूप से फिट हैं ? कितनों ने इस उम्र तक 23 लाख रुपए कमा लिए हैं ? कितनों के पास टीम के साथ काम करने का अनुभव है ? जब आप इन सवालों के जवाब खोजेंगे तो स्वयं पाएंगे कि इस उम्र तक युवा अधिकतर कोचिंग और कॉलेजों में पढ़ाई कर रहे होते हैं और प्लेसमेंट का इंतज़ार करते रहते हैं कि कोई कंपनी आएगी और उन्हें सेलेक्ट करेगी। यहां, अग्निपथ में सेना आपको सम्मान के रोज़गार के साथ ही पढ़ने का भी मौका दे रही है। यहाँ भी देश की अधिकतर आबादी अग्निपथ के समर्थन में है, लेकिन चंद लोगों के सड़कों पर उपद्रव करने से विरोध नज़र आ रहा है, और मौन समर्थन दब गया है, जैसा कृषि कानूनों और CAA के दौरान भी हुआ था। इसलिए किसी के बहकावे में न आएं और ये बात हमेशा याद रखें कि सेना में जाकर देश सेवा करने का सपना देखने वाले कभी देश नहीं जलाते।    

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