रेल मंत्री ने भी बयान दिया है कि रेल बजट अलग से प्रस्तुत करने का प्रस्तावआया है। इससे लोक-लुभावन घोषणाएं टालकर रेलवे को मजबूत आर्थिक आधार दिया जा सकता है । भारतीय रेल दुनिया की सबसे बड़ी यात्री रेल सेवा होने के साथ सबसे बड़ी मालवाही सेवाओं में शुमार है। हालाँकि ज्यादातर सरकारी समितियां यह मानती हैं कि रेलवे, सड़क परिवहन की तुलना में ज्यादा पर्यावरण अनुकूल होने के साथ ऊर्जा की किफायत में 10 गुना बेहतर है, इसलिए रेलवे के ढांचे पर 3 लाख करोड़ रुपए सालाना से कम खर्च नहीं होना चाहिए। चीन में रेल नेटवर्क 1949 के 21,800 किमी से बढ़कर 2015 में 1,21,000 किमी हो गया है। तुलना में हम 1950-51 में 53,596 किमी थे जो 2013-14 में 65,806 किमी हो पाया। चीन ने 2014 में 130.40 अरब डॉलर लगाए और 2015 में 9,000 किमी नया नेटवर्क खड़ा किया। उसका लक्ष्य 2050 तक नेटवर्क को 2,74,000 किमी तक ले जाना है।
जमीन पर ज्यादा दबाव सीमित तेल भंडार के कारण हमारी रेलवे जरूरत शायद चीन से भी अधिक है। फिलहाल अब हम हर साल 800 किमी ट्रैक बना रहे हैं। पहले के 200 किमी को देखते हुए यह रिकॉर्ड सुधार है। रेल बजट यह जरूरत रेखांकित करता है। तेल के बढ़ते बोझ के चलते स्वतंत्रता पहले के रेलवे के 80 फीसदी योगदान को फिर हासिल करने की सिफारिश नीति आयोग ने भी की है। फरवरी 2015 में सरकार द्वारा प्रस्तुत श्वेत-पत्र के मुताबिक 1950-51 के बाद सिर्फ 23 फीसदी रेल नेटवर्क जोड़ा गया है, हालाँकि माल वहन 1344 फीसदी तो यात्री परिवहन 1642 फीसदी बढ़ा है। राष्ट्र जानना चाहता है कि सरकार इसे कैसे हासिल करना चाहती है। वैसे भी तो रेलवे की हिस्सेदारी माल ढुलाई में 35 और यात्री परिवहन में 10 फीसदी है। सच तो यह है कि आमदनी के आकार की बजाय इसका प्रभाव ज्यादा महत्वपूर्ण है। रेलवे की आमदनी लगभग 2 लाख करोड़ रुपए सालाना है (2016-17 में 1,84,820 रु)। किंतु यदि 10 फीसदी ऊर्जा की किफायत और कार्बन उत्सर्जन की बचत जोड़ें तो असर 20 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा होगा, जिसकी तुलना सरकार के सालाना पूंजीगत खर्च से संभव है। रेल बजट के मार्फत रेलवे द्वारा फंड्स के स्वतंत्र प्रबंधन से देश 67,000 करोड़ रुपए की सब्सिडी से बच सका है। इस प्रक्रिया में सरकार रोजगार गारंटी योजना, खाद्य, उर्वरक गैस सब्सिडी के लिए पैसा निकाल सकी है।
रेल बजट, केंद्रीय बजट जैसी प्रक्रिया ही अपनाता है। यह भी सारी घोषणाओं के लिए प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाले कैबिनेट से मंजूरी लेता है। सारी आमदनी एकीकृत फंड में जाती है और मांग संसद की अनुमति के बाद अनुदान में बदल जाती है। कुछ ‘सशुल्क’ खर्च छोड़ दें तो खर्च के लिए पैसा संसद की मंजूरी के बाद ही लिया जा सकता है। वही फर्क इस बात में है कि रेल बजट का हिस्सा होने पर बारीक ब्योरे भी सार्वजनिक रहते हैं और लोग विकास होता हुआ देख सकते हैं। वही हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह पारदर्शिता बहुत जरूरी है। इसके अलावा पहली बात तो यह कि प्रधानमंत्री और कैबिनेट सदस्यों को घोषणाओं पर राजी करने के लिए रेलमंत्री के व्यक्तिगत करिश्मे की जरूरत होती है। फिर लोक-लुभावन घोषणाएं करते समय रेल मंत्री रक्षात्मक भूमिका में होते थे और बड़ी मेहनत से बताते थे कि वे अन्य राजों के हितों का किस तरह ध्यान रखेंगे। इस लोकतांत्रिक अंकुश के हटते ही एक बार आम बजट पेश हो जाए तो उसके बाद प्रस्तावक नेता लक्षित वर्ग के लिए आसानी से घोषणाएं करके समर्थकों से ज्यादा श्रेय लूट लेगा। अभी तो रेलवे अन्य मंत्रालयों के लिए भी उदाहरण है कि अपने फंड्स पैदा करके सब्सिडी का बढ़ता बोझ कम कैसे करें। 2013 में देश पर सब्सिडी का अनुमानित बोझ 3.6 लाख करोड़ रुपए था।
44 लाख करोड़ डॉलर के उद्योग को इस वजह से हो सकता है खतरा
देश का 1% अमीर लोगो के पास 70 फीसद आबादी की पूरी सम्पति का चार गुना पैसा है
सेंसेक्स और निफ्टी खुले रिकॉर्ड स्तर पर, इन शेयरों में नजर आयी काफी तेज़ी