मरने के बाद हमारा क्या होता है ?
मरने के बाद हमारा क्या होता है ?
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जीव अमर है। उसकी मृत्यु का कोई प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। अविनाशी आत्मा सदा से है और सदा तक रहेगा। शरीर की मृत्यु को हम लोग अपनी मृत्यु मानते हैं, बस इसीलिए डरते और भयभीत होते हैं। यदि अन्तःकरण को यह विश्वास हो जाय कि आज की तरह हमें आगे भी जीवित रहना है, तो डरने की बात नहीं रह जाती
मृत्यु का भय अन्य सब भयों से अधिक बलवान है, आदमी मौत के डर से थर-थर काँपा करता है। इसका कारण परलोक सम्बन्धी अज्ञान है। इस पुस्तक में उस अज्ञान को हटाने का प्रयत्न किया गया है और उस जिज्ञासा की पूर्ति करने की चेष्ठा की गई है, जिसमें मनुष्य अपने भविष्य के बारे में जानने के लिए आतुर रहता है।

परलोक विज्ञान के संबंध में हाथों-हाथ प्रमाण देकर साबित करना कठिन है, क्योंकि यह विषय जड़ विज्ञान की पहुँच से ऊँचा है। सर ओलिवर लाज जैसे परलोक विद्याविशारद को इस विद्या के सम्बन्ध में यही कहना पड़ा है कि,  ‘‘इस आत्मविज्ञान को हर समय प्रत्यक्ष कर दिखाना कठिन है।’’ जो उनके लिए परलोक संबंधी यह पुस्तक कल्पना से अधिक प्रतीत न होगी, किन्तु जो दिव्यदर्शियों और तत्वज्ञानियों के वचनों पर विश्वास करते हैं, उनके लिए इसमें विश्वसनीय सामग्री है, क्योंकि अनेक उच्च आत्माओं के निकट संपर्क में रहकर जो ज्ञान हमने प्राप्त किया है, उसी का इसमें निचोड़ है।

मृत्यु का स्वरूप
जीवन का प्रवाह अनंत है। हम अगणित वर्षों से जीवित हैं, आगे अगणित वर्षों तक जीवित रहेंगे। भ्रमवश मनुष्य यह समझ बैठा है कि जिस दिन बच्चा माता के पेट में आता है या गर्भ से उत्पन्न होता हा, उसी समय से जीवन आरंभ होता है और जब हृदय की गति बंद हो जाने पर शरीर निर्जीव हो जाता है तो मृत्यु हो जाती है। यह बहुत ही छोटा, अधूरा और अज्ञानमूलक विश्वास है। आधुनिक भौतिक विज्ञान कहता बताया जाता है कि जीव की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं, शरीर ही जीव है। शरीर की मृत्यु के बाद हमारा कोई अस्तित्व नहीं रहता, परंतु बेचारा भौतिक विज्ञान स्वयं अभी बाल्यावस्था में है। विद्युत की गति के संबंध में अब तक करीब तीन दर्जन सिद्धांतों का प्रतिपादन हो चुका है। हर सिद्धांत अपने से पहले मतों का खंडन करता है। बेशक उन्होंने बिजली चलाई। दरअसल में अब तक ठीक-ठीक यह नहीं जाना जा सका कि वह किस प्रकार चलती है ? नित नई सम्मति बदलने वाले जड़ विज्ञान का भौतिक जगत में स्वागत हो सकता है, पर यदि उसे ही आध्यात्मिक विषय में प्रधानता मिली। तो सचमुच हमारी बड़ी दुर्गति होगी। एक वैज्ञानिक कहता है कि शरीर ही जीव है। दूसरा मृतात्मा आश्चर्यजनक करतबों को पूरी -पूरी तरह चुनौती देता है और अपने पक्ष को प्रमाणित करके विरोधियों का मुख बंद कर देता है। तीसरे वैज्ञानिक के पास ऐसे अटूट प्रमाण मौजूद हैं, जिनमें छोटे-छोटे अबोध बच्चों ने अपने पूर्वजन्मों के स्थानों को और संबंधियों को इस प्रकार पहचाना है कि उसमें पूनर्जन्म के विषय में किसी प्रकार के संदेह की गुंजाइश ही नहीं रहती। बालक जन्म लेते ही दूध पीने लगता है, यदि पूर्व स्मृति न हो तो बिना सिखाए किस प्रकार यह सब सीख जाता, बहुत-से बालकों में अत्यल्प अवस्था में ऐसे अद्भुत गुण देखे जाते हैं, जो प्रकट करते हैं कि यह ज्ञान इस जन्म का नहीं, वरन पूर्वजन्म का है।

जीवन और शरीर एक वस्तु नहीं हैं। जैसे कपड़ों को हम यथा समय बदलते रहते हैं, उसी प्रकार जीव को भी शरीर बदलने पड़ते हैं। तमाम जीवन भर एक कपड़ा पहना नहीं जा सकता, उसी प्रकार अनंत जीवन का एक शरीर नहीं ठहर सकता। अतएव उसे बार-बार बदलने की आवश्यकता पड़ती है। स्वभावतः तो कपड़ा पुराना जीर्ण-शीर्ण होने पर ही अलग किया जाता है, पर कभी-कभी जल जाने, किसी चीज में उलझकर फट जाने, चूहों के काट देने या अन्य कारणों से वह थोड़े ही दिनों में बदल देना पड़ता है। शरीर साधारणतः वृद्धावस्था में जीर्ण होने पर नष्ट होता है, परंतु यदि बीच में ही कोई आकस्मिक कारण उपस्थित हो जाएँ, तो अल्पायु में भी शरीर त्यागना पड़ता है।

मृत्यु किस प्रकार होती है ? इस संबंध में तत्त्वदर्शी योगियों का मत है कि मृत्यु से कुछ समय पूर्व मनुष्य को बड़े बेचैन, पीड़ा और छटपटाहट होती, क्योंकि सब नाड़ियों में से प्राण खिंचकर एक जगह एकत्रित होता है, किंतु पुराने अभ्यास के कारण वह फिर उन नाड़ियों में खिसक जाता है, जिससे एक प्रकार का आघात लगता है, यही पीड़ा का कारण है। रोग, आघात या अन्य जिस कारण से मृत्यु हो रही हो तो उससे भी कष्ट उत्पन्न होता है। मरने से पूर्व प्राणी कष्ट पाता है, चाहे वह जवान से उसे प्रकट कर सके या न कर सके, लेकिन जब प्राण निकलने का समय बिलकुल पास आ जाता है तो एक प्रकार की मूर्च्छा आ जाती है और उस अचेतनावस्था में प्राण शरीर से बाहर निकल जाते हैं। जब मनुष्य मरने को होता है, तो उसकी समस्त बाह्य शक्तियाँ एकत्रित होकर अंतर्मुखी हो जाती हैं और फिर स्थूल शरीर से बाहर निकल पड़ती हैं। पाश्चात्य योगियों का मत है कि जीवन का सूक्ष्मशरीर बैंगनी रंग की छाया लिए शरीर से बाहर निकलता है। भारतीय योगी इसका रंग शुभ्र ज्योति स्वरूप सफेद मानते हैं। 

जीवन में जो बातें भूलकर मस्तिष्क के सूक्ष्म कोष्ठकों में सुषुप्त अवस्था में पड़ी रहती हैं। वे सब एकत्रित होकर एक साथ निकलने के कारण जाग्रत एवं सजीव हो जाती हैं. इसलिए कुछ ही क्षण के अंदर अपने समस्त जीवन की घटनाओं को फिल्म की तरह देखा जाता है। इस समय मन की आश्चर्यजनक शक्ति का पता लगता है। उनमें से आधी भी घटनाओं के मासिक चित्रों को देखने के लिए जीवित समय में बहुत समय की आवश्यकता होती, पर इन क्षणों में वह बिलकुल ही स्वल्प समय में पूरी-पूरी तरह मानव-पटल पर घूम जाती हैं। इस सबका जो सम्मिलित निष्कर्ष निकलता है, वह सार रूप में संस्कार बनकर मृतात्मा के साथ हो लेता है। कहते हैं कि यह घड़ी अत्यंत पीड़ा की होती है। एक साथ हजार बिच्छुओं के दंश का कष्ट होता है। कोई मनुष्य भूल से अपने पुत्र पर तलवार चला दे और वह अधकटी अवस्था में पड़ा छटपटा रहा हो, तो उस दृश्य को देखकर एक सहृदय पिता के हृदय में अपनी भूल के कारण प्रिय पुत्र के लिए ऐसा भयंकर कांड उपस्थित करने पर जो दारुण व्यथा उपजती है, ठीक वैसी ही पीड़ा उस समय प्राण अनुभव करता है, क्योंकि बहुमूल्य जीवन का अकसर उसने वैसा सदुपयोग नहीं किया जैसा कि करना चाहिए था। 

जीव जैसी बहुमूल्य वस्तु का दुरूपयोग करने पर उसे उस समय मर्मांतक मानसिक वेदना होती है। पुत्र के कटने पर पिता को शारीरिक नहीं, मानसिक कष्ट होता है, उसी प्रकार मृत्यु के ठीक समय मर्मांतक मानसिक चेतनाएँ तो शून्य हो जाती हैं, पर मानसिक कष्ट बहुत भारी होता है। रोग आदि शारीरिक पीड़ा तो कुछ क्षण पूर्व ही, जबकि इंद्रियों की शक्ति अंतर्मुखी होने लगती है, तब ही बंद हो जाती है। मृत्यु से पूर्व शरीर अपना कष्ट सह चुकता है। बीमारी से या किसी आघात से शरीर और जीव के बंधन टूटने आरंभ हो जाते हैं। डाली पर से फल उस समय टूटता है, जब उसका डंठल असमर्थ हो जाता है, उसी प्रकार मृत्यु उस समय होती है, जब शारीरिक शिथिलता और अचेतना आ जाती है। ऊर्ध्व रंध्रों में से अकसर प्राण निकलता है। मुख, आँख, कान, नाक प्रमुख मार्ग हैं। दुष्ट वृत्ति के लोगों का प्राण मल-मूत्र मार्गों से निकलता देखा जाता है। योगी ब्रह्मरंध्र से प्राण त्याग करता है।

शरीर से जी निकल जाने के बाद वह एक विचित्र अवस्था में पड़ जाता है। घोर परिश्रम से थका हुआ आदमी जिस प्रकार कोमल शैय्या प्राप्त करते ही निद्रा में पड़ जाता है, उसी प्रकार मृतात्मा को जीवन भर का सारा श्रम उतारने के लिए एक निद्रा की आवश्यकता होती है। इस नींद से जीव को बड़ी शांति मिलती है और आगे का काम करने के लिए शक्ति प्राप्त कर लेता है। मरते ही नींद नहीं आ जाती, वरन इसमें कुछ देर लगती है। प्रायः एक महीना तक लग जाता है। कारण यह है कि प्राणांत के बाद कुछ समय तक जीवन की वासनाएँ प्रौढ़ रहती हैं और वे धीरे-धीरे ही निर्बल पड़ती हैं। कड़ा परिश्रम करके आने पर हमारे शरीर का रक्त-संचार बहुत तीव्र रहता है और पलंग मिल जाने पर भी उतने समय तक जागते रहते हैं, जब फिर रक्त की गति धीमी न पड़ जाए। मृतात्मा स्थूल शरीर से अलग होने पर सूक्ष्मशरीर में प्रस्फुटित हो जाता है। यह सूक्ष्मशरीर ठीक स्थूलशरीर की ही बनावट का होता है। 

मृतक को बड़ा आश्चर्य लगता है कि मेरा शरीर कितना हल्का हो गया है, वह हवा में पक्षियों की तरह उड़ सकता है और इच्छा मात्र से चाहे जहाँ आ-जा सकता है। स्थूलशरीर छोड़ने के बाद वह अपने मृत शरीर के आस-पास ही मँडराता रहता है। मृत शरीर के आस-पास प्रियजनों को रोता-विलखता देखर वह उनसे कुछ कहना चाहता है या वापस पुराने शरीर में लौटना चाहता है, पर उसमें वह कृत्कार्य नहीं होता। एक प्रेतात्मा ने बताया है कि ‘‘मैं मरने के बाद बड़ी अजीव स्थिति में पड़ गया। स्थूलशरीर में और प्रियजनों में मोह होने के कारण मैं उसके संपर्क में आना चाहता था, पर लाचार था।

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