श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहते थे वेदांत स्वामी श्री प्रभुपाद
श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहते थे वेदांत स्वामी श्री प्रभुपाद
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कृष्ण कृपामूर्त श्रीमद् ए.सी. भक्ति वेदांत स्वामी प्रभुपाद का जन्म 1896 ई. में कोलकाता में हुआ था। वहीँ उनकी मृत्यु 14 नवंबर 1977 में हुई थी। बहुत काम लोग जानते हैं कि उनके पिता गौर मोहन डे कपड़े के व्यापारी थे और उनकी माता का नाम रजनी था। वेदांत स्वामी प्रभुपाद का घर उत्तरी कोलकाता में 151, हैरिसन रोड पर था। कहा जाता है गौर मोडन डे ने अपने बेटे अभय चरण का पालन पोषण एक कृष्ण भक्त के रूप में किया। वहीँ श्रील प्रभुपाद ने 1922 में अपने गुरु महाराज श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती गोस्वामी से भेंट की और इसके ग्यारह वर्ष बाद 1933 में वह प्रयाग में उनके विधिवत दीक्षा प्राप्त शिष्य हो गए।

श्री प्रभुपाद से उनके गुरु श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने कहा था कि 'वह अंग्रेजी भाषा के माध्यम से वैदिक ज्ञान का प्रसार करें।' ऐसे में आने वाले वर्षों में श्री प्रभुपाद ने श्रीमद् भगवद्गीता पर एक टीका लिखी और गौड़ीय मठ के कार्य में सहयोग दिया। उसके बाद साल 1944 ई। में श्री प्रभुपाद ने बिना किसी सहायता के एक अंग्रेजी पाक्षिक पत्रिका आंरंभ की जिसका संपादन, पाण्डुलिपि का टंकन और मुद्रित सामग्री के प्रूफ शोधन का सारा कार्य वह स्वयं करते थे। आपको बता दें कि ‘बैक टू गॉडहैड’ नामक यह पत्रिका पश्चिमी देशों में भी चलाई जा रही है और तीस से अधिक भाषाओं में छप रही है। वहीँ श्री प्रभुपाद के दार्शनिक ज्ञान एवं भक्ति की महत्ता पहचान कर गौड़ीय वैष्णव समाज ने 1947 ई। में उन्हें ‘भक्ति वेदांत’ की उपाधि से सम्मानित किया। साल 1950 ई। में 54 साल की आयु में श्रील प्रभुपाद ने गृहस्थ जीवन से अवकाश लेकर वानप्रस्थ ले लिया ताकि वह अपने अध्ययन और लेखन के लिए अधिक समय दे सकें।

उसके बाद श्री प्रभुपाद ने श्री वृंदावन धाम की यात्रा की, जहां वह बड़ी ही सात्विक परिस्थितियों में मध्यकालीन ऐतिहासिक श्री राधा दामोदर मंदिर में रहे। यहाँ वह अनेक वर्षों तक गंभीर अध्ययन एवं लेखन में संलग्न रहे। उसके बाद साल 1959 ई। में उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया। 14 नवम्बर 1977 ई। को कृष्ण बलराम मंदिर, वृंदावन धाम में अप्रकट होने के पूर्व तक श्री प्रभुपाद ने अपने कुशल मार्ग निर्देशन के कारण इस संघ को विश्व भर में सौ से अधिक मंदिरों के रूप में एक वृहद संगठन बना दिया। जी हाँ और उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ अर्थात इस्कॉन की स्थापना कर संसार को कृष्ण भक्ति का अनुपम उपहार प्रदान किया।

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