अंग्रेजों से लोहा लेने वाला योद्धा - टीपू सुल्तान
अंग्रेजों से लोहा लेने वाला योद्धा - टीपू सुल्तान
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18 वीं सदी के उत्तरार्ध में देश में एक ऐसा योद्धा भी जन्मा जिसने सबसे पहले अंग्रेजों को भारत से निकालने के लिए संघर्ष किया और मैसूर की रक्षा करते हुए अपनी जान दे दी. इस शासक का नाम टीपू सुलतान के नाम से इतिहास में दर्ज है. शेर-ए -मैसूर के नाम से जाने वाले टीपू सुल्तान की आज पुण्य तिथि है.इस मौके पर उनके जीवन से जुड़े अतीत के कुछ पन्ने पलटने का प्रयास करते हैं.

टीपू सुल्तान का जन्म 20 नवंबर 1750 को कर्नाटक के देवनाहल्ली में हुआ था. उनका पूरा नाम सुलतान फतेह अली खान था. उनकी माँ का नाम फातिमा फ़क़रुन्निसा था.उनके पिता हैदर अली खान भी नवाब थे जिनके संरक्षण में टीपू ने बचपन से युद्ध कला की शिक्षा ली थी. मात्र 17 वर्ष की उम्र में उन्होंने पिता के साथ अंग्रेजों से पहली लड़ाई जीती थी. टीपू सुल्तान विद्वान,योग्य शासक और योद्धा था. वह महत्वाकांक्षी होने के साथ ही कुशल सेनापति भी था. अंग्रेजों के हाथों हुई अपने पिता की पराजय का वह बदला लेना चाहता था. टीपू के साहस से अंग्रेज भी भयभीत थे.टीपू में उन्हें नेपोलियन की तस्वीर दिखती थी. अनेक भाषाओँ के ज्ञाता टीपू सुल्तान ने अपने पिता के कार्यकाल में ही प्रशासनिक और सैनिक युद्ध विद्या सीखना शुरू कर दिया था.

टीपू सुल्तान के बारे में कहा जाता है कि वह एक कट्टर मुस्लिम शासक था. लेकिन राम के नाम की अंगूठी पहनता था .टीपू एक बेहतरीन तलवारबाज था. उसकी तलवारबाजी के कई किस्से चर्चित हैं. जिद्दी और अभिमानी टीपू देशी राजाओं को तुच्छ समझता था.लेकिन फ्रांसीसियों पर बहुत भरोसा करता था.निरंकुश और स्वेच्छाचारी होने पर भी वह अपनी प्रजा का ध्यान रखता था. पानी के भंडारण के लिए कावेरी के तट पर उसने बांध की नींव रखी थी जो आज का कृष्णराज बाँध है. पूर्व राष्ट्रपति मरहूम एपीजे अब्दुल कलाम ने उन्हें विश्व का पहला रॉकेट आविष्कारक बताया था. टीपू सुल्तान का पलक्कड़ का किला बहुत मशहूर है.हिन्दू मंदिरों को उन्होंने सोने - चांदी के बर्तन भेंट किए.वह अपने पिता के समान दूरदर्शी और कूटनीतिज्ञ थे.

मंगलौर संधि - उन दिनों जब टीपू सुल्तान का अंग्रेजों के प्रति विरोध बढ़ता गया तो अंग्रेजों ने टीपू से मार्च 1784 में मंगलौर संधि कर ली जो मात्र एक दिखावा थी. दरअसल यह मैसूर युद्ध के अंत की शुरुआत थी. धोखा देने में माहिर अंग्रेजों ने यह संधि इसलिए कर ली क्योंकि यह उन्हें कालांतर में लाभ दिलाने वाली थी.1786 में लार्ड कार्नवालिस भारत का गवर्नर जनरल बनकर भारत आया.कुछ दिनों बाद अंग्रेजों ने निजाम और मराठों से संधि कर ली. इससे उनकी ताकत में इजाफा हुआ तो टीपू ने फ्रांसीसियों से हाथ मिलाया. अंग्रेजों के इस संयुक्त मोर्चे ने युद्ध की घोषणा कर दी. तृतीय मैसूर युद्ध दो साल तक चला जिसमें अंग्रेज विजयी हुए. 1782 में श्री रंग पटट्नम संधि के साथ युद्ध खत्म हुआ. इस संधि में टीपू ने अपने राज्य का आधा हिस्सा और तीस लाख पौंड अंग्रेजों को दिए. सबसे बड़ा हिस्सा बीच का प्रदेश निजामों को दिया गया. वहीं कुछ हिस्सा मराठों को भी मिला. यह अंग्रेजों की दूरंदेशी ही चौथे युद्ध की बुनियाद बनी. .अंग्रेजों की सीमा तुंगभद्रा तक पहुँच गई.

इस बीच सात साल बीत गए. हालाँकि टीपू के कई शुभ चिंतकों ने उनसे समझौता करने की सलाह भी दी. लेकिन टीपू का कहना था कि ' शेर कीएक दिन की जिंदगी गीदड़ के एक हजार साल से बेहतर होती है'.कहते हुए कोई भी समझौता करने से इंकार कर दिया. उधर अंग्रेज किसी भी तरह टीपू को खत्म कर निर्बाध शासन करना चाहते थे.इसलिए श्रीरंगपट्ट्नम में आखिर चौथा युद्ध 1799 में लड़ा गया. जहाँ अपने राज्य की रक्षा करते हुए टीपू सुल्तान 4 मई 1799 को वीर गति को प्राप्त हुए. एक ऐसा योद्धा जिसने सबसे पहले अंग्रेजों से लोहा लिया वह श्री रंगपट्ट्नम की ज़मीन में दफ़न हो गया.लेकिन उसके साहस के किस्से आसमान में आज भी गूंजते हैं.

टीपू सुल्तान की मृत्यु के बाद उनका सारा खजाना अंग्रेज ले गए. कहा जाता है कि जब टीपू की मौत हुई तो उनकी सुंदर और कीमती अंगूठी उनकी ऊँगली काटकर ले गए. लन्दन के ब्रिटिश म्यूजियम में टीपू सुल्तान की सभी चीजें सजी हुई है. इसमें टीपू की वह प्रसिद्ध भारी भरकम तलवार भी शामिल थी. जिसे बरसों बाद लीकर किंग विजय माल्या ने 2003 में नीलामी में खरीदा और भारत का गौरव वापस लाए, इस बेशकीमती तलवार की रत्नजड़ित मूठ पर बाघ की आकृति अंकित है जो टीपू के शासनकाल का प्रतीक चिन्ह था. इसीलिए उन्हें ' टाइगर ऑफ़ मैसूर ' कहा जाता था.

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