The Tashkent Files Review : खिंची हुई और बोझिल है शास्त्री के जीवन की कहानी
The Tashkent Files Review : खिंची हुई और बोझिल है शास्त्री के जीवन की कहानी
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भारत के दूसरे पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री पर बनी फिल्म हाल ही रिलीज़ हुई है जिसका पब्लिक रिव्यु हम आपको बताने जा रहे हैं. निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ने उसी क्रिऐटिव फ्रीडम के तहत 'द ताशकंद फाइल्स' पर फिल्म बनाई. फिल्म इतिहास के सर्वाधिक कॉन्ट्रोवर्शल अध्याय यानी स्वतंत्र देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शात्री की मौत के इर्दगिर्द बुनी गई है, जहां पर सवाल उठाए गए हैं कि क्या पूर्व पीएम की मौत दिल का दौरा पड़ने से हुई स्वाभाविक मृत्यु थी या ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद उन्हें जहर दे दिया गया था.

फिल्म : द ताशकंद फाइल्स
कलाकार : नसीरुद्दीन शाह, मिथुन चक्रवर्ती, पंकज त्रिपाठी, श्वेता प्रसाद, पल्लवी जोशी, मंदिरा बेदी 
निर्देशक : विवेक अग्निहोत्री 
मूवी टाइप : ड्रामा,थ्रिलर,मिस्ट्री
अवधि : 2 घंटा 24 मिनट
रेटिंग : 2/5

कहानी : बता दें कि उनकी मौत 11 जनवरी 1966 को हुई थी. उनकी मौत के बाद उनका पोस्टमार्टम क्यों नहीं किया गया? उनके शरीर पर जगह-जगह कट्स के निशान क्यों थे? उनके पार्थिव शरीर को जब भारत लाया गया, तो वह सूजा और काला क्यों था? इन्ही के जवाब इस फिल्म में शायद आपको भी मिल जाएँ.

फिल्म की कहानी एक अति महत्वाकांक्षी पॉलिटिकल पत्रकार के स्कूप लाने के चैलेंज से शुरू होती है. यह पत्रकार है रागिनी (श्वेता बासु प्रसाद) उसे उसके बॉस ने अल्टीमेटम दे दिया है कि 15 दिनों के अंदर उसे कोई स्कूप लाना होगा, वरना उसे नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा. उसके बाद उसे अपने जन्मदिन पर एक लीड मिलती है, जो पूर्व पीएम लाल बहादुर शास्त्री की मौत को लेकर है. उसे उकसाया जाता है कि अगर इस विवादास्पद पहलू पर वह सरकार को जवाबदेह बनाएगी तो बहुत बड़ा स्कूप बन सकता है.  

उसके बाद श्याम सुंदर त्रिपाठी (मिथुन चक्रवर्ती) और पीकेएआर नटराजन (नसीरुद्दीन शाह) जैसे पॉलिटिकल नेता एक-दूसरे के धुर-विरोधी होने के बावजूद इन सवालों की सत्यता जानने के लिए एक कमिटी का गठन करते हैं. इस कमिटी में रागिनी और श्याम सुंदर त्रिपाठी समेत ऐक्टिविस्ट (इंदिरा जोसफ रॉय), इतिहासकार आयशा अली शाह ( पल्लवी जोशी), ओमकार कश्यप (राजेश शर्मा), गंगाराम झा (पंकज त्रिपाठी), जस्टिन कुरियन अब्राहम (विश्व मोहन बडोला) जैसे लोगों को चुना जाता है. 

निर्देशन : 
निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ने अपनी फिल्म को विश्वसीनय बनाने के लिए कई ऐतिहासिक किताबों, खबरों, संदर्भों और तथ्यों का सनसनीखेज ढंग से इस्तेमाल किया है, मगर साथ-साथ एक बड़ा डिस्क्लेमर भी दिया है कि उसमें उन्होंने सिनेमैटिक लिबर्टी भी ली है. लेकिन वह अपने इस मुद्दे को सही तौर पर एग्जिक्यूट नहीं कर पाए. फर्स्ट हाफ में कहानी खिंची हुई और बोझिल मालूम होती है और सेकंड हाफ में ड्रामा इतना ज्यादा हो जाता है कि निर्देशक लाल बहादुर शात्री की अस्वाभिवक मौत के मुद्दे को साबित करने के लिए बेकरार नजर आने लगते हैं. 

एक्टिंग : 
सभी कलाकारों ने उम्दा अभिनय किया है. हालांकि नसीरुद्दीन शाह का रोल बहुत छोटा है, मगर मिथुन चक्रवर्ती ने श्याम सुंदर त्रिपाठी की भूमिका में भरपूर मनोरंजन किया है. पल्लवी जोशी को एक लंबे अरसे बाद परदे पर देखना अच्छा लगा है. पंकज त्रिपाठी, मंदिरा बेदी और राजेश शर्मा ने अपनी भूमिकाओं को अपनी समर्थ अदाकारी के जरिए निभाया है. रागिनी के रूप में श्वेता बसु प्रसाद ने पावरपैक्ड परफॉर्मेंस दी है. उन्होंने इस कॉम्लिकेटेड भूमिका को बखूबी अदा किया है. 

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