तेरा ही घर ढूंढता रहा
तेरा ही घर ढूंढता रहा
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मैं अक्सर ही इक अदद ख़्वाब की चाहत में
सुकूं से लबरेज़ वो नींद ढूंढता रहा
मुद्दतों ख़ुद की पहचान से दूर रहा
और भटकते हुए तेरे निशां ढूंढता रहा

कुछ कहते हैं ना जाने क्यूँ मेरे क़लाम को बेहतर
लिखने के बाद मैं ख़ुद ही पन्नों को फाड़ता रहा
वो मुस्कुराते हुए भी ग़ैरतमंद जान पड़ता था
और मैं नज़रें झुकाकर भी बे-ग़ैरत होता रहा

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