एक बार एक गृहस्थ स्वामी विवेकानंद जी के पास आया और कहने लगा, मैंने बहुत प्रयत्न किए, परंतु बुरी आदतें मेरा पीछा नहीं छोड़ती। अब मैं क्या करूं मुझे बताइए। उन्होंने अपने एक शिष्य को बुलाकर उसके कान में कुछ कहा।
कुछ समय पश्चात विवेकानंद उस व्यक्ति को साथ लेकर एक उपवन में घूमने गए। मार्ग में देखते क्या हैं कि एक शिष्य वृक्ष से लिपटकर बैठा है और वृक्ष को पैर से मारे जा रहा है तथा वृक्ष से निरंतर कह रहा है, अरे मुझे छोड़! अरे मुझे छोड! उस व्यक्ति ने कहा मुझे तो यह पागल लगता है। इसने स्वयं वृक्ष को पकड़ रखा है और कहता है मुझे छोड़।
इस पर विवेकानंद ने हंसते हुए कहा, मुझे तो आपकी दशा ऐसी ही लगती है। आपको ऐसा नहीं लगता क्या आपने ही बुरी आदतों को पकड़ रखा है और तंग होते हैं तथा कहते हैं बुरी आदतें मुझे छोड़ती नहीं। यह सुनकर वह व्यक्ति लज्जित हो गया ।
कुछ दूर आगे गए, तो एक माली पौधों में खाद डाल रहा था। खाद से बहुत दुर्गंध आ रही थी। उस व्यक्ति ने नाक पर रूमाल रख लिया। विवेकानंद हंस पड़े। थोडा और आगे बढ़े, तो अनेक पुष्पों में रंग-बिरंगे फूल खिले थे। उनसे सुगंध आ रही थी। उस गृहस्थ ने भरपूर सुगंध ली और प्रसन्न हो गया। विवेकानंद अब भी मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। गृहस्थ ने सोचा मैं इतनी बडी समस्या लेकर आया हूं और ये हंस रहे हैं। ये पागल हैं या कहीं मेरा उपहास तो नहीं कर रहे हैं।
अंत में उससे रहा नहीं गया उसने पूछ ही लिया, महाराज आप हंस क्यों रहे हैं, मुझसे कोई चूक हो गई क्या तब विवेकानंद ने कहा ये फूल-पौधे हमसे कितने पिछड़े हुए हैं, फिर भी ये खाद से मिलने वाली दुर्गंध को सुगंध में परिवर्तित कर देते हैं। अपने पास तनिक भी सुगंध नहीं रखते, सब बांट देते हैं ये किसी भी परिस्थिति में झूमते रहते हैं। टूट जाने पर भी सुगंध बखेरते रहते हैं। वहीं यह बुद्धिमान मानव अपने अवगुणों को गुणों में परिवर्तित नहीं करता। थोड़े से संकट में मनुष्य घबरा जाता है। यह सुनकर गृहस्थ को बात समझ में आ गई और वह अपने घर चला गया।