शहादत दिवस : कलम में दम रखते थे पत्रकार विद्यार्थी
शहादत दिवस : कलम में दम रखते थे पत्रकार विद्यार्थी
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नई दिल्ली : स्वातंत्रयोत्तर हिंदी पत्रकारिता को आजादी के दीवानों को ताकत देने के साथ ही साथ उसे निष्पक्ष और समाजोपयोगी तेवर देने वाले पत्रकारों में सबसे अग्रणी गणेश शंकर विद्यार्थी को माना जाता है। किसी के लिए भी अपनी बेबाकी और अलग अंदाज से दूसरों के मुंह पर ताला लगाया एक बेहद मुश्किल काम होता है। कलम की ताकत हमेशा से ही तलवार से अधिक रही है और ऐसे कई पत्रकार हैं, जिन्होंने अपनी कलम से सत्ता तक की राह बदल दी।

गणेशशंकर विद्यार्थी का नाम ऐसे ही पत्रकार में गिना जाता है। गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म प्रयाग में 26 अक्टूबर 1890 को हुआ था लेकिन उन्होंने अपनी जिंदगी अपने मूल्यों के लिए लड़ते हुए दी थी। उनकी मौत सहज और स्वाभाविक नहीं थी इसीलिए उन्हें पहला शहीद पत्रकार कहा जाता है। कानपुर के हिन्दू-मुस्लिम दंगे में निस्सहायों को बचाते हुए 25 मार्च 1931 वे अताताइयों के हाथों मारे गए। विद्यार्थी जी साम्प्रदायिकता की भेंट चढ़ गए थे।

उनका शव अस्पताल की लाशों के मध्य पड़ा मिला। वह इतना फूल गया था कि, उसे पहचानना तक मुश्किल था। नम अखों से 29 मार्च को विद्यार्थी जी का अंतिम संस्कार कर दिया गया। गणेशशंकर विद्यार्थी एक ऐसे साहित्यकार रहे, जिन्होंने देश में अपनी कलम से सुधार की क्रांति उत्पन्न की थी। गणेश शंकर विद्यार्थी एक समाजसेवी, स्वतंत्रता सेनानी और कुशल राजनीतिज्ञ भी थे। भारत के 'स्वाधीनता संग्राम' में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा था।

गणेशशंकर विद्यार्थी भी ऐसे ही पत्रकार थे, जिन्होंने अपनी कलम की ताकत से अंग्रेजी शासन की नींव हिला दी थी। गणेशशंकर विद्यार्थी एक ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, जो कलम और वाणी के साथ-साथ महात्मा गांधी के अहिंसक समर्थकों और क्रांतिकारियों को समान रूप से देश की आजादी में सक्रिय सहयोग प्रदान करते रहे। गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर, 1890 में अपने ननिहाल प्रयाग (इलाहाबाद) में हुआ था। इनके पिता का नाम जयनारायण था।

पिता एक स्कूल में अध्यापक के पद पर नियुक्त थे और उर्दू तथा फारसी खूब जानते थे। गणेशशंकर विद्यार्थी की शिक्षा-दीक्षा मुंगावली (ग्वालियर) में हुई थी। पिता के समान ही इन्होंने भी उर्दू-फारसी का अध्ययन किया। अपनी आर्थिक कठिनाइयों के कारण गणेश शंकर विद्यार्थी एंट्रेंस तक ही पढ़ सके, किंतु उनका स्वतंत्र अध्ययन अनवरत चलता ही रहा। अपनी मेहनत और लगन के बल पर उन्होंने पत्रकारिता के गुणों को खुद में भली प्रकार से सहेज लिया था।

शुरू में गणेश शंकर जी को सफलता के अनुसार ही एक नौकरी भी मिली थी, लेकिन उनकी अंग्रेज अधिकारियों से नहीं पटी, जिस कारण उन्होंने वह नौकरी छोड़ दी। इसके बाद कानपुर में गणेश जी ने करेंसी ऑफिस में नौकरी की, किन्तु यहां भी अंग्रेज अधिकारियों से इनकी नहीं पटी। अत: यह नौकरी छोड़कर अध्यापक हो गए। महावीर प्रसाद द्विवेदी इनकी योग्यता पर रीझे हुए थे। उन्होंने विद्यार्थी जी को अपने पास 'सरस्वती' के लिए बुला लिया।

विद्यार्थी जी की रुचि राजनीति की ओर पहले से ही थी। यह एक ही वर्ष के बाद 'अभ्युदय' नामक पत्र में चले गए और फिर कुछ दिनों तक वहीं पर रहे। इसके बाद सन 1907 से 1912 तक का इनका जीवन अत्यंत संकटापन्न रहा। इन्होंने कुछ दिनों तक 'प्रभा' का भी संपादन किया था। 1913, अक्टूबर मास में 'प्रताप' (साप्ताहिक) के संपादक हुए। इन्होंने अपने पत्र में किसानों की आवाज बुलंद की। 'प्रताप' भारत की आजादी की लड़ाई का मुख-पत्र साबित हुआ।

कानपुर का साहित्य समाज 'प्रताप' से जुड़ गया। क्रांतिकारी विचारों व भारत की स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति का माध्यम बन गया था-प्रताप। सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं पर विद्यार्थी जी के विचार बड़े ही निर्भीक होते थे। विद्यार्थी जी ने देशी रियासतों की प्रजा पर किए गए अत्याचारों का भी तीव्र विरोध किया। गणेशशंकर विद्यार्थी कानपुर के लोकप्रिय नेता तथा पत्रकार, शैलीकार एवं निबंध लेखक रहे थे।

यह अपनी अतुल देश भक्ति और अनुपम आत्मोसर्ग के लिए चिरस्मरणीय रहेंगे। विद्यार्थी जी ने प्रेमचन्द की तरह पहले उर्दू में लिखना प्रारंभ किया था। उसके बाद हिंदी में पत्रकारिता के माध्यम से वे आये और आजीवन पत्रकार रहे। उनके अधिकांश निबंध त्याग और बलिदान संबंधी विषयों पर आधारित हैं। इसके अतिरिक्त वे एक बहुत अच्छे वक्ता भी थे। गणेश शंकर विद्यार्थी की भाषा में अपूर्व शक्ति है। उसमें सरलता और प्रवाहमयता सर्वत्र मिलती है।

विद्यार्थी जी की शैली में भावात्मकता, ओज, गांभीर्य और निर्भीकता भी पर्याप्त मात्रा में पाई जाती है। उसमें आप वक्रता प्रधान शैली ग्रहण कर लेते हैं। जिससे निबंध कला का ह्रास भले होता दिखे, किंतु पाठक के मन पर गहरा प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। उनकी भाषा कुछ इस तरह की थी, जो हर किसी के मन पर तीर की भांति चुभती थी। गरीबों की हर छोटी से छोटी परेशानी को वह अपनी कलम की ताकत से दर्द की कहानी में बदल देते थे।

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