तो इसलिए स्थापित की जाती है गणेश प्रतिमा
तो इसलिए स्थापित की जाती है गणेश प्रतिमा
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गणेश उत्सव प्रारंभ होने वाला है। घर-घर गणपति की प्रतिमाएं स्थापित कर श्रद्धापूर्वक पूजी जाएंगी। श्रद्धालु इस बार संकल्पित होकर अपने घरों में मिट्टी से निर्मित गणेश प्रतिमाओं की ही स्थापना करें। हमारे ऋषि-मुनियों ने देव प्रतिमाओं के निर्माण में माटी के उपयोग को सर्वश्रेष्ठ बताया। उत्सव के समापन पर मिट्टी की ये प्रतिमाएं सहजता से विसर्जित की जा सकेंगी। गणेश चतुर्थी के मौके पर भगवान गणपति की प्रतिमा को घर लाकर हम पूजा की शुरुआत करते हैं। आज के दिन भगवान गणेश की प्रतिमा को घर लाना सबसे पवित्र समझा जाता है। जब आप बप्पा की मूर्ति को घर लाएं, उससे पहले इन चीजों को तैयार रखें। अगरबत्ती और धूप, आरती थाली, सुपारी, पान के पत्ते और मूर्ति पर डालने के लिए कपड़ा, चंदन के लिए अलग से कपड़ा और चंदन।

गणपति मूर्ति की पूजा करने के लिए सबसे पहले एक आरती की थाली में अगरबत्ती-धूप को जलाएं। इसके बाद पान के पत्ते और सुपारी को भी इसमें रखें। इस दौरान मंत्र  ऊं गं गणपतये नमः का जाप करें। जो श्रद्धालु गणेश जी की मूर्ति को चतुर्थी से पहले अपने घर ला रहे हैं, उन्हें मूर्ति को एक कपड़े से ढककर लाना चाहिए और पूजा के दिन मूर्ति स्थापना के समय ही इसे हटाना चाहिए। घर में मूर्ति के प्रवेश से पहले इस पर अक्षत जरूर डालना चाहिए। स्थापना के समय भी अक्षत को आसन के निकट डालना चाहिए। साथ ही, वहां सुपारी, हल्दी, कुमकुम और दक्षिणा भी वहां रखना चाहिए।

गणेश चतुर्थी के दिन भगवान गणेश अपने भक्तों के समस्त विघ्नों को दूर करने के लिए विघ्नों के मार्ग में विकट स्वरूप धारण करके खड़े हो जाते हैं। अपने घर, दुकान, फैक्टरी आदि के मुख्य द्वार के ऊपर तथा ठीक उसकी पीठ पर अंदर की ओर गणेश जी का स्वरूप अथवा चित्रपट जरूर लगाएं। ऐसा करने से गणेश जी कभी भी आपके घर, दुकान अथवा फैक्टरी की दहलीज पार नहीं करेंगे तथा सदैव सुख-समृद्धि बनी रहेगी। कोई भी नकारात्मक शक्ति घर में प्रवेश नहीं कर पाएगी।
गणेश चतुर्थी के दिन ब्रह्म मूहर्त में उठकर स्नान आदि से शुद्ध होकर शुद्ध कपड़े पहनें। आज के दिन लाल रंग के वस्त्र पहनना अति शुभ होता है। गणपति का पूजन शुद्ध आसन पर बैठकर अपना मुख पूर्व अथवा उत्तर दिशा की तरफ करके करें। पंचामृत से श्री गणेश को स्नान कराएं तत्पश्चात केसरिया चंदन, अक्षत, दूर्वा अर्पित कर कपूर जलाकर उनकी पूजा और आरती करें। उनको मोदक के लड्डू अर्पित करें। उन्हें रक्तवर्ण के पुष्प विशेष प्रिय हैं। श्री गणेश जी का श्री स्वरूप ईशाण कोण में स्थापित करें और उनका श्री मुख पश्चिम की ओर रहे। संध्या के समय गणेश चतुर्थी की कथा, गणेश पुराण, गणेश चालीसा, गणेश स्तुति, श्रीगणेश सहस्रनामावली, गणेश जी की आरती, संकटनाशन गणेश स्तोत्र का पाठ करें। अंत में गणेश मंत्र श् ऊं गणेशाय नमरूश् अथवा श्ऊं गं गणपतये नमरू का अपनी श्रद्धा के अनुसार जाप करें। अपने दोनों हाथ जोड़कर स्थापना स्थल के समीप बैठकर किसी धर्म ग्रंथ का पाठ रोजाना करेंगे तो शुभ फल मिलेगा। सच्चे मन और शुद्ध भाव से गणपति की पूजा करने से बुद्धि, स्वास्थ्य और संपत्ति मिलती है।

जहां पर भगवान श्रीगणेश की प्रतिमा स्थापित करें, उस स्थान को प्रतिदिन साफ करें वहां कचरा इत्यादि न जमा हो पाए।  श्रीगणेश प्रतिमा की स्थापना ईशान कोण में करें। स्थापना इस प्रकार करें कि श्रीगणेश की मूर्ति का मुख पश्चिम की ओर रहे।  भगवान श्रीगणेश की रोज पूजा करें। सुबह-शाम दीपक व भोग लगाएं तथा आरती करें।  धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान श्रीगणेश को तुलसी न चढ़ाएं।  स्थापना स्थल पर मृतात्माओं का चित्र न लगाएं।  स्थापना स्थल के ऊपर कोई कबाड़ या वजनी चीज न रखें। दूर्वा व ताजे फूल चढ़ाएं तो बेहतर रहेगा। स्थापना स्थल पर पवित्रता का ध्यान रखें जैसे- चप्पल पहनकर कोई स्थापना स्थल तक न जाए, चमड़े का बेल्ट या पर्स रखकर कोई पूजा न करें आदि।  किसी भी प्रकार का नशा करके स्थापना स्थल पर न जाएं। स्थापना के बाद श्रीगणेश की प्रतिमा को इधर-उधर न रखें यानी हिलाएं नहीं। स्थापना स्थल के समीप बैठकर किसी धर्म ग्रंथ का पाठ रोज करेंगे तो शुभ फल मिलेगा।

गणेश चतुर्थी व्रत विधि - भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी गणेश चतुर्थी के नाम से प्रसिद्ध है,इस प्रातरूकाल स्नानादि से निवृत होकर सोना तांबा चांदी मिट्टी या गोबर से गणेश की मूर्ति बनाकर उसकी पूजा करनी चाहिये,पूजने के समय इक्कीस मोदकों का भोग लगाते है,तथा हरित दूर्वा के इक्कीस अंकुर लेकर यह दस नाम लेकर चढाने चाहिये- ऊँ गताप नमरू ऊँ गोरीसुमन नमरू, ऊँ अघनाशक नमरू, ऊँ एक दन्ताय नमरू,ऊँ ईश पुत्र नमरू,ऊँ सर्वसिद्धिप्रद नमरू ऊँ विनायक नमरू,ऊँ कुमार गुरु नमरू,ऊँ इम्भववक्त्राय नमरू,ऊँ मूषकवाहन संत नमरू, तत्पश्चात इक्कीस लड्डुओं में दस लड्डू ब्राह्मणों को दान देना चाहिये,और ग्यारह लड्डू स्वयं खाने चाहिये 

गणेश चतुर्थी व्रत कथा - एक बार महादेवजी पार्वती सहित नर्मदा के तट पर गए. वहाँ एक सुंदर स्थान पर पार्वतीजी ने महादेवजी के साथ चैपड़ खेलने की इच्छा व्यक्त की. तब शिवजी ने कहा- हमारी हार-जीत का साक्षी कौन होगा? पार्वती ने तत्काल वहाँ की घास के तिनके बटोरकर एक पुतला बनाया और उसमें प्राण-प्रतिष्ठा करके उससे कहा- बेटा! हम चैपड़ खेलना चाहते हैं, किन्तु यहाँ हार-जीत का साक्षी कोई नहीं है. अतः खेल के अन्त में तुम हमारी हार-जीत के साक्षी होकर बताना कि हममें से कौन जीता, कौन हारा? खेल आरंभ हुआ. दैवयोग से तीनों बार पार्वतीजी ही जीतीं. जब अंत में बालक से हार-जीत का निर्णय कराया गया तो उसने महादेवजी को विजयी बताया. परिणामतः पार्वतीजी ने क्रुद्ध होकर उसे एक पाँव से लंगड़ा होने और वहाँ के कीचड़ में पड़ा रहकर दुःख भोगने का शाप दे दिया । बालक ने विनम्रतापूर्वक कहा- माँ! मुझसे अज्ञानवश ऐसा हो गया है. मैंने किसी कुटिलता या द्वेष के कारण ऐसा नहीं किया. मुझे क्षमा करें तथा शाप से मुक्ति का उपाय बताएँ. तब ममतारूपी माँ को उस पर दया आ गई और वे बोलीं- यहाँ नाग-कन्याएँ गणेश-पूजन करने आएँगी. उनके उपदेश से तुम गणेश व्रत करके मुझे प्राप्त करोगे. इतना कहकर वे कैलाश पर्वत चली गईं ।

एक वर्ष बाद वहाँ श्रावण में नाग-कन्याएँ गणेश पूजन के लिए आईं. नाग-कन्याओं ने गणेश व्रत करके उस बालक को भी व्रत की विधि बताई. तत्पश्चात बालक ने 12 दिन तक श्रीगणेशजी का व्रत किया. तब गणेशजी ने उसे दर्शन देकर कहा- मैं तुम्हारे व्रत से प्रसन्न हूँ. मनोवांछित वर माँगो. बालक बोला- भगवन! मेरे पाँव में इतनी शक्ति दे दो कि मैं कैलाश पर्वत पर अपने माता-पिता के पास पहुँच सकूं और वे मुझ पर प्रसन्न हो जाएँ । गणेशजी ‘तथास्तु’ कहकर अंतर्धान हो गए. बालक भगवान शिव के चरणों में पहुँच गया. शिवजी ने उससे वहाँ तक पहुँचने के साधन के बारे में पूछा । तब बालक ने सारी कथा शिवजी को सुना दी. उधर उसी दिन से अप्रसन्न होकर पार्वती शिवजी से भी विमुख हो गई थीं. तदुपरांत भगवान शंकर ने भी बालक की तरह 21 दिन पर्यन्त श्रीगणेश का व्रत किया, जिसके प्रभाव से पार्वती के मन में स्वयं महादेवजी से मिलने की इच्छा जाग्रत हुई । वे शीघ्र ही कैलाश पर्वत पर आ पहुँची. वहाँ पहुँचकर पार्वतीजी ने शिवजी से पूछा- भगवन! आपने ऐसा कौन-सा उपाय किया जिसके फलस्वरूप मैं आपके पास भागी-भागी आ गई हूँ. शिवजी ने ‘गणेश व्रत’ का इतिहास उनसे कह दिया । तब पार्वतीजी ने अपने पुत्र कार्तिकेय से मिलने की इच्छा से 21 दिन पर्यन्त 21-21 की संख्या में दूर्वा, पुष्प तथा लड्डुओं से गणेशजी का पूजन किया. 21वें दिन कार्तिकेय स्वयं ही पार्वतीजी से आ मिले. उन्होंने भी माँ के मुख से इस व्रत का माहात्म्य सुनकर व्रत किया। कार्तिकेय ने यही व्रत विश्वामित्रजी को बताया. विश्वामित्रजी ने व्रत करके गणेशजी से जन्म से मुक्त होकर ‘ब्रह्म-ऋषि’ होने का वर माँगा. गणेशजी ने उनकी मनोकामना पूर्ण की. ऐसे हैं श्री गणेशजी, जो सबकी कामनाएँ पूर्ण करते हैं

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