पितृ ऋण से मुक्ति दिलवाता है श्राद्ध
पितृ ऋण से मुक्ति दिलवाता है श्राद्ध
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भारत बहुभाषी और बहुधर्मी देश है लेकिन इस देश में आत्मा के अस्तित्व को सभी धर्मावलंबी मानते हैं। इन अनुयायियों का मानना है कि आत्मा होती है और देवलोक के ही साथ पितृलोक भी होता है। पितृओं की कृपा से उन्हें धन- धान्य, संतान, सुख - समृद्धि आदि की प्राप्ति होती है यही नहीं हमारे पूर्वजों का हम पर आशीर्वाद होता है। ऐसे में पितृओं के प्रति धन्यवाद देना और उन्हें स्मरण करना भी आवश्यक है। यही नहीं पौराणिक मान्यता है कि व्यक्ति पर पितृऋण होता है। ऐसे में पितरों को पिंडदान, तर्पण कर वह यह ऋण चुकाता है। मगर सबसे बड़ी बात यह है कि श्राद्ध का अर्थ क्या है। श्राद्ध शब्द श्रद्धा शब्द से निर्मित हुआ है।

स्वर्गलोक को गए पितरों द्वारा हमारे लिए जो भी कुछ किया जाता है वह उन्हें लौटाना संभव नहीं है लेकिन पूरी श्रद्धा से उनके लिए जो भी किया जाता है उसे ही श्राद्ध कहा जाता है। देश, काल और पात्र के अनुसार पितरों को उद्देशित कर ब्राह्मणों को श्रद्धा और विधियुक्त अन्न, द्रव्य आदि दिया जाता है उसे ही श्राद्ध कहा जाता है।

श्राद्ध विधि की मूल कल्पना ब्रह्देव के पुत्र अत्रिऋषिकी ने की है। दरअसल अत्रिऋिषि ने निमी नामक पुरूष वंश को ब्रह्देव द्वारा दर्शाई गई श्राद्धविधि सुनाई। इस तरह का आचरण आज भी किया जाता है। मनु को श्राद्ध देव कहा जाता है दरअसल मनु ने सबसे पहले श्राद्ध क्रिया की। ऋग्वेदकाल में समिधा और पिंडकी अग्नि में आहुति देकर पितृपूजन किया जाता है। यजुर्वेद, ब्राह्मण और श्रोत के साथ गृह्य सूत्रों में पिंडदान का विधान दिया गया है।

गृहसूत्रों के समय पिंडदान प्रचलित हुआ। दरअसल सपिंड श्राद्ध के तहत पिता, पितामह और प्रपितामह का स्वरूप समझा जाए तो उन पिंडों की शास्त्रोक्त पूजा तिल से की जा सकती है। श्राद्धों के अंतर्गत ब्राह्मण भोजन श्रुति, स्मृति के भी आगे के कामल में श्राद्ध में ब्राह्मण भोजन आवश्यक माना गया। पितृलोक को गए पूर्वजों को आगे के लोकों में गमन करने हेतु गति प्राप्त हो इसके लिए श्राद्ध विधियां की जाती हैं। 

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