पितरों के ऋण से तार देते हैं श्राद्ध
पितरों के ऋण से तार देते हैं श्राद्ध
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हिंदू धर्म में व्यक्ति जब गर्भ में आता है तभी से ही उसके संस्कार प्रारंभ हो जाते हैं जो कि मरने तक बने रहते हैं। इन क्रियाओं को सौलह संस्कार कहा जाता है। मगर इन संस्कारों के बाद भी आगे कुछ विधियां और मान्यताऐं होती हैं उन्हें श्राद्ध कहा जाता है। जी हां, श्राद्ध को लेकर कहा गया है कि श्रद्धा से जो किया जाए वही श्राद्ध है। दरअसल मान्यता है कि मरने के बाद व्यक्ति की आत्मा सूक्ष्म और तरह तरह के शरीर लेकर कुछ समय तक विचरण करती है। ऐसे में उसे उसे पूर्व जन्म और वर्तमान जन्म अर्थात् जिस जन्म से वह मुक्त हुआ है। उस जन्म के कर्म के अनुसार फल भोगना होता है। इस दौरान आत्मा कई तरह से विचरण करती है।

माना जाता है कि मृत्यु के बाद प्रारंभ के 13 दिनों तक आत्मा शरीर से जुड़े उसके संबंधियों के बीच मौजूद होती है। जिसे पिंड दान कर शरीर प्रदान किया जाता है। दरअसल यह शरीर मानवीय नहीं होता है। यह प्रतीकात्मक होता है। इस पिंड के माध्यम से हम उसे अपने बंधनों से मुक्त कर उसकी परम गति की कामना करते हैं। इस दौरान कुछ श्राद्धों में पिंड दान के साथ ही उस जीवात्मा को पितरों के साथ मिलाया जाता है।

मगर इसके बाद एक वर्ष पूर्ण हो जाने के बाद व्यक्ति की परमगति और पितरों को प्रसन्न करने के लिए श्राद्ध पक्ष में उनकी आराधना की जाती है। इस माध्यम से हम पितर ऋण को उतारते हैं। जी हां, व्यक्ति के उपर पितृ ऋण, मातृ ऋण, गुरू ऋण आदि ऋण होते हैं जो उसे चुकाने होते हैं। माना जाता है कि पितर व्यक्ति से प्रसन्न होकर उसे समृद्धि, सौभाग्य, राज्य और मोक्ष की प्राप्ति का आशीर्वाद देते हैं। व्यक्ति के मरने के एक वर्ष बीत जाने के बाद पहला श्राद्ध भरणी श्राद्ध होता है। इस श्राद्ध में आत्मा को पितरों में मिलाया जाता है और उन्हें पितृलोक में यथोचित स्थान दिया जाता है।

इसके बाद से उनकी मृत्यु के दिन जो तिथि होती है उसे तिथि पर श्राद्ध किया जाता है। इस बार यह श्राद्ध पक्ष अंग्रेजी कैलेंडर की 27 सितंबर की तारीख अर्थात अश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से प्रारंभ हो रहे हैं। सौलह दिन के श्राद्ध पक्ष में विभिन्न तिथियों के साथ सर्वपितृ अमावस्या के दिन और प्रतिपदा व चतुर्दशी के दिन सभी पितरों को तर्पण दिया जाता है। इससे पितर प्रसन्न होते हैं। 

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