सोच के मायाजाल में फँसी वैज्ञानिक जिंदगी व उसके आविष्कार
सोच के मायाजाल में फँसी वैज्ञानिक जिंदगी व उसके आविष्कार
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इस मानसिकता का सबसे ज्यादा शिकार वैज्ञानिक वर्ग होता आया है | ऐसी मानसिकता के दौर में किसी भी आविष्कार को मान्यता बड़ी मुश्किल से मिलती है, यदि मिलती है तो फिर आगे जनता तक पहुँचाने के लिए उससे कई गुना बड़ी समस्या मुँह फाडे खड़ी रहतीं है | आविष्कार की सरकारी व कानूनी मान्यता का आधार सिर्फ़ पेटेंट लेना होता है जबकि सामाजिक व प्रशासनिक सोच पेटेंट को व्यवसाहिक कदम मानती है | यहा बाज़ार में पेटेंट की कीमत लाखों करोड़ों से आगे निकलकर अरबों में पहुँच चुकी है | यह उन आविष्कारों के लिए लागू होती है जिनका बड़े स्तर पर व्यवसाहिक उत्पादन हो रहा है | सामाजिक व प्रशासनिक सोच तो सिर्फ़ पेटेंट की कीमत में उलझ जाती है व परिस्थिति का आकलन बहुत ही कम करती है | इस कारण आविष्कार की मान्यता के बाद आविष्कारक के लिए अनगिनत मुश्किलें बढ़ जाती है क्यूँकि अधिकांश व्यक्ति सोचते है की आविष्कारक तो करोड़ों कमायेगा, इसलिए "मुझे क्या मिलेगा?" के मुखौटे के पिछे छिप जाते है | दैनिक जीवन में आविष्कार के बाद फैक्ट्री खोलना या किसी कंपनी को बेच देना ही सफलता का प्रतीक माना जाता है क्यूँकि इसी के माध्यम से आविष्कारक को पहली बार अपनी मेहनत का फल धन के रूप में नसिब होता है | जबकि तकनीकी रूप से पहला मार्ग युवा आविष्कारक को उत्पादक और दूसरा मार्ग उसे व्यवसाही बनाता है अर्थात उसका कार्य क्षेत्र या मार्ग बदल जाता है | 

पिछ्ले कुछ वर्षों का आकलन देखा जाये तो वो ही आविष्कारक सफल हुआ जो स्वयं उद्योगपति या उत्पादक बना नहीं तो दोनो क्षेत्रों का कार्य एक साथ किया | एक तकनीक के बाद दूसरी तकनीक को खरीद कर या अनुबंध के आधार पर समाहित करना व्यवसाय की परिधि में आता है न की आविष्कार के दायरे में | इसी तरह हम युवा वैज्ञानिक को सफलता की पहली सीढ़ी के बाद खत्म कर डालते है फिर प्रश्न पूछते है कि नये आविष्कार करने में हम दुनिया में पिछे क्यू है ? (भारत के वर्तमान राष्ट्रपति इसी प्रश्न पूछने के नाम पर करोड़ों खर्च कर पूरा देश घूम गये) आविष्कारों के लिए एक और रास्ता है किसी कंपनी से अनुबंध करके रॉयल्टी कमाने का परन्तु यह तभी संभव है जब मोनोपोली किसी एक को दिया जाये | इस मार्ग से भी आविष्कारक आपने आविष्कार को उल्टा कर देता है आर्थात उसे लोगो तक पहुँचने से रोकता है | सिर्फ़ विज्ञान के क्षेत्र में ही जनक या पिता की उपाधि दी जाती है क्यूँकि वह् एक आविष्कार को जन्म के साथ-साथ एक संतान की तरह पालता है जो एक नये युग की शुरुवात होती है | यदि वह मोनोपोली या एकाधिकार देता है तो अपनी ही संतान को एक बंदी गृह में भेजने के समान होता है जो उसे आम लोगो तक पहुँचने से रोकता है | इसके बाद का रास्ता एक से ज्यादा कम्पनियों को तकनीकी ट्रांसफर करने का होता है परन्तु इस के लिए कार्य का एक प्लेटफॉर्म बनाना पड़ता है और कम्पनियों में प्रारंभिक रुचि पैदा करने के लिए विशेष छूट देनी पड़ती है | 

यह प्रशासनिक नियंत्रण में आता है परन्तु कार्य करने का निजी दायरे में, यह दोनो एक दूसरे के पूरक हो जाने से अन्य परिस्थितियां हावी हो जाती है | इस मार्ग में कुछ ही कम्पनियों तक पहुँचा जा सकता है जो क्षेत्र विशेष के लोगो तक सीमित रह जाता है | भ्रस्टाचार व लेटलतीफी के दौर में सरकारों से विशेष छूट लेना कितना आसान या मुश्किल है इसे भी बताने की जरूरत मुझे नहीं लगती | इसका सबसे अच्छा उदाहरण कुछ माह पूर्व आये उच्चतम न्यायालय का निर्णय है | जिसमें स्विट्ज़रलैंड की कंपनी को कैंसर की दवा ग्लाइबाइक कि लिए पेटेंट नही दिया गया क्यूँकि उसमें नया कुछ नही था वो उसके खत्म हो रहे पहले के पेटेंट का ही रूप था | इस पर लोगो की राय को पुरी मीडिया जगत् ने प्रकाशित किया की कैंसर की दवा अब आम लोगो को सस्ते में मील पायेगी क्यूँकि पहले यह मूल उत्पादन कीमत से कई गुना ज्यादा दाम से मील रही थी जो लोगो के लिए आर्थिक तौर पर बड़ा बोझ थी | इसका अर्थ यह हुआ की हमारी जेब में दवाई रखी पड़ी है और जिंदगी भर अपने पेट की आग बुझाने के लिए पैसो की तृष्णा के वास्ते पानी रहित आँखें खोलकर लोगो को तड़पते व मरते देखना | भौतिकवादी वस्तु में यह जघन्य अधर्म प्रकट नई होता परन्तु जीवन रक्षक दवाइयों में निर्लजता को सतह पर ला देता है | 

दार्शनिकों एवं विचारकों के शब्दों में यहा विज्ञान का आविष्कार मानवताविहीन हो जाता है | एक निशिचत समय के बाद कानून पेटेंट खत्म हो जाता है परन्तु व्यक्तिवादीं व विज्ञापन के युग में कॉपीराइट, ट्रेडमार्क व जिओग्राफिकल संकेत पेटेंट से बड़े साबित होकर मोनोपोली या एकाधिकार कि धार को कई वर्षों तक जीवित बनाये रखते है | यहा तकनीक से बड़ा पैसा हो जाता है, जो तकनीक से आता है पैसा या पैसे से आती है तकनीक ?

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