महाभारत के इन श्लोकों में बताया गया है कैसा होता है मांस खाने वाला व्यक्ति
महाभारत के इन श्लोकों में बताया गया है कैसा होता है मांस खाने वाला व्यक्ति
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दुनियाभर में कई लोग हैं जो अपने धर्म को मानते हैं और अपने धर्म के अनुसार काम करते हैं और उसका पालन करते हैं. ऐसे में हर धर्म में अहिंसा को सबसे परम धर्म कहा जाता है, लेकिन वह हिंसा जो अत्याचारी से अपनी रक्षा के लिए ना की गई हो, उसे सबसे बड़ा अधर्म माना जाता है और मांस का भोजन इसी प्रकार की हिंसा से प्राप्त होता है. आप सभी को बता दें कि ऐसे ही हिंदुओं के लिए मांस खाना सबसे बड़ा पाप में से एक कहा जाता है.  वहीं मांसभक्षण को लेकर महाभारत में घोर निंदा की गई है जो अपने पढ़ा ही होगा. वहीं महाभारत में कई ऐसे श्लोक हैं जो मांस ना खाने के आदेश देते हैं. तो आज हम आपको उन श्लोकों और उनके अर्थों के बारे में बताने जा रहे हैं जो आपको जान लेना चाहिए. आइए बताते हैं आपको.

स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति. नाति क्षुद्रतरस्तस्मात्स नृशंसतरो नर. - आपको बता दें कि इस श्लोक का अर्थ यह है कि जो व्यक्ति दूसरों के मांस से अपना मांस बढ़ाना चाहता है, उससे बढ़कर नीच और निर्दयी मनुष्य दूसरा कोई नहीं है.

अधृष्यः सर्वभूतानां विश्वास्यः सर्वजन्तुषु. साधूनां सम्मतो नित्यं भवेन्मांसं विवर्जयन्. - इस श्लोक का अर्थ है जो व्यक्ति मांस का त्याग कर देता है, वह सब प्राणियों में आदरणीय, सब जीवों का विश्वसनीय और सदा साधुओं से सम्मानित होता है.

ददाति यजते चापि तपस्वी च भवत्यपि. मधुमांसनिवृत्येति प्राह चैवं बृहस्पति. - इस श्लोक का अर्थ है बृहस्पति जी ने कहा है कि जो व्यक्ति मद्य और मांस का त्याग कर देता है वह दान देता, यज्ञ करता है और तप करता है. इसका मतलब यह है कि उस व्यक्ति को इन तीनों चीजों का लाभ मिलता है.

एवं वै परमं धर्मं प्रशंसन्ति मनीषिणः. प्राणा यथाఽఽत्मनोఽभीष्टा भूतानामपि वै तथा. - इस श्लोक का अर्थ है मनीषी पुरुष अहिंसारूप परमधर्म की तारीफ करते हैं. जैसे व्यक्ति को अपना प्राण प्रिय होता है वैसे ही सभी प्राणियों को अपने-अपने प्राण प्रिय होते हैं.

न हि मांसं तृणात् काष्ठादुपलाद् वापि जायते. हत्वा जन्तुं ततो मांसं तस्माद् दोषस्तु भक्षणे. - इस श्लोक का अर्थ है मांस ना तो घास से, ना लकड़ी से या फिर ना तो पत्थर से पैदा होता है. मांस प्राणी की हत्या करने पर ही मिलता है. इसलिए मांस खाने में दोष है.

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