मूक फिल्में बनाते थे वी शांताराम, 134 सप्ताह तक सिनेमाघर में लगी थी उनकी ये फिल्म
मूक फिल्में बनाते थे वी शांताराम, 134 सप्ताह तक सिनेमाघर में लगी थी उनकी ये फिल्म
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मशहूर फिल्मकार शांताराम राजाराम वणकुद्रे यानी वी शांताराम का निधन आज ही के दिन हुआ था। वी शांताराम भारतीय सिनेमा के एक ऐसे फिल्मकार रहे जिन्होंने सिनेमा अपने साथ सिनेमा को भी आगे बढ़ाया। शांताराम उस समय के फिल्मकार थे जब देश में मूक फिल्में बनती थीं। उसी दौरान उन्होंने सिनेमा में अपने करियर की शुरुआत की थी। कहा जाता है पहली बोलती फिल्म तो शांताराम ने नहीं बनाई लेकिन फिल्मों में तकनीक का इस्तेमाल सबसे पहले शुरू करने का श्रेय उनको ही जाता है। उन्होंने अपने करियर में 90 से ज्यादा फिल्में बनाईं और 55 फिल्मों के वह निर्देशक रहे। आप सभी को बता दें कि भारत सरकार की तरफ से दिए जाने वाले सिनेमा के सबसे बड़े सम्मान दादासाहेब फाल्के पुरस्कार से भी वह सम्मानित हुए थे। उन्हें साल 1985 में इस पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

वी शांताराम ने अपने करियर की शुरुआत से ही चुनौतीपूर्ण फिल्में बनाना शुरू किया था। इस लिस्ट में 'नेताजी पालकर', 'गोपाल कृष्ण', 'उदयकाल' जैसी साइलेंट फिल्में शामिल हैं। वहीं इन फिल्मों को बनाने के बाद शांताराम ने 'अमृत मंथन', 'अमर ज्योति' जैसी बेहतरीन बोलती फिल्में भी बनाईं। आपको बता दें कि उनकी हर फिल्म का मुद्दा अलग ही रहता था और इसी के चलते वह मशहूर हुए। शांताराम ने साल 1937 में फिल्म 'दुनिया न माने' बनाई और यह फिल्म हिंदी के साथ मराठी भाषा में भी 'कुंकु' शीर्षक से बनी है। इस फिल्म के साथ शांताराम ने भारतीय समाज में महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार पर हिम्मत दिखाकर प्रकाश डाला। इसी के साथ ही उन्होंने बाल विवाह का भी अपनी फिल्म में चित्रण किया और यह फिल्म उन्होंने वेनिस इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में भी दिखाई। इस फिल्म को हर जगह दर्शकों और समीक्षकों दोनों के द्वारा सराहना दी गई।

उनकी सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में साल 1972 में 'पिंजरा' भी एक रही और मूल रूप से यह एक मराठी फिल्म है लेकिन उसी साल शांताराम ने इसे हिंदी भाषा में भी रिलीज किया। वहीं जाने-माने रंगमंच के कलाकार श्रीराम लागू ने इस फिल्म से ही फिल्मों में अपने करियर की शुरुआत की। आपको बता दें कि इस फिल्म को भी अभिनेत्री संध्या की बेहतरीन नृत्य प्रस्तुति के लिए जाना जाता है। वहीं शांताराम की सबसे बेहतरीन फिल्मों में यह अंतिम है। कहा जाता है महाराष्ट्र के शहर पुणे में यह फिल्म लगातार 134 सप्ताह तक चलती रही और यह कहानी एक स्कूल के अध्यापक और एक तमाशा करने वाली की रही थी। इस फिल्म को मराठी भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म मानते हुए अगले साल राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला। फिलहाल वी शांताराम इस दुनिया में नहीं है लेकिन लोग उन्हें भुला नहीं पाए हैं।

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