विकसित करें स्वयं की दर्शन शक्ति
विकसित करें स्वयं की दर्शन शक्ति
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ब्रह्म का ज्ञान नहीं, बोध चाहिए। ज्ञान इंद्रियों से उत्पन्न होता है और बोध इंद्रियों से परे की बात है। इंद्रियाँ शांत हों तभी बोध की किरणें अंत:करण में फैलती हैं। बोध हो जाए तो यह भाव नहीं रहता कि मैं परमात्मा को जानता हूँ या परमात्मा का मुझे बोध है। तब तो यही भाव रहता है कि परमात्मा ने कृपापूर्वक स्वयं को जान लिया है। और तब केवल परमात्मा ही शेष रहता है। ऐसी दशा में व्यक्ति का अंत:करण परमात्मा बोध की अनुभूति कर स्थितप्रज्ञ बन जाता है। जैसे निश्चल निर्मल जल की सतह पर निर्मल चंद्र प्रतिबिम्बित होता है मलिन, हलचल से भरे सरोवर में शांत निर्मल चंद्रबिंब भी अशांत और पंकिल प्रतीत होता है, उसी प्रकार अशांत और इंद्रियों से पराभूत अंत:करण से शुद्ध बुद्ध मुक्त ब्रह्म भी क्षय-उपचय से युक्त, म्लान तथा सीमाबद्ध भासता है।

उपनिषद कहते हैं कि ब्रह्म को इंद्रिय ग्राह्य मानने वाला अज्ञानी है। जिसने मान लिया है कि मैं जानता हूँ, उसने कुछ नहीं जाना। जो शांत हो गया है ज्ञान और अज्ञान के प्रति तटस्थ हो गया है, जो ज्ञान और अज्ञान का साक्षी बन गया है, वह ब्रह्म रूप हो गया है। ब्रह्म जाना नहीं जाताए ब्रह्म हुआ जाता है। इसके होने की कोई व्याख्या नहीं कि जा सकती। होना अस्तित्व है। अस्तित्व का अनुभव ही किया जा सकता है।

यस्यामतं तस्य मतं यस्य न वेद स:। अविज्ञानं विजानतां विज्ञातमविज्ञानताम॥
वस्तुत: ब्रह्म को नहीं जानते, वे कभी न कभी जान सकते हैं। ऐसे लोग परमात्मा के निकट ही हैं। साथ ही जो ब्रह्म को जानने का दावा करते चलते हैं, वे कभी नहीं जान सकते। ऐसे लोग परमात्मा से बहुत दूर हैं।

अन्धं तम: प्रविशन्ति येअविद्यामुपासते। ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रता:॥
चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा है। दिखाई तो कुछ पड़ता नहीं। परंतु हम यह मानने को तैयार नहीं है कि कुछ दिखाई नहीं पड़ता है। जहाँ सभी भटके ही होते हैं वहाँ कभी भूल कर कोई सुलझी आँख वाला पहुँच भी जाए तो उसका मखौल बनता है। और उस स्वयं का दर्शन करने की दृष्टि रखने वाले का मजाक उड़ाते हैं। ऐसों के संसार में उनका अगुआ भी तो कोई ऐसा ही होता है। उपनिषद् कहते हैं कि ऐसे अविद्या में डूबे लोग अपने को ब्रह्मज्ञानी पंडित मानकर स्वयं तो नष्ट होते ही हैं, सारे समाज को भी नष्ट करते हैं।

अविद्यायामन्तरे वर्तमाना: स्वयं धीरा: पंण्डितं मन्यमाना:।
जड्घन्यमाना: परियन्ति मूढ़ा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धा:॥

समाज में ऐसे भटके हुए एवं भ्रमितों की भीड़ है। उनकी अगुवाई से मनुष्य को बचना है और स्वयं की आँख खोलकर चलना है। भ्रमितों के दिखाने पर जो चलेगाए वह गर्त में अवश्य गिरेगा। स्वयं की दर्शन शक्ति विकसित करना है। स्वयं के आवरण का भेदन कर परम प्रभु से नाता जोडऩा है।

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