पौराणिक कथा: अविवाहित कुंती ने दिया था कर्ण का जन्म और बहा दिया था नदी में
पौराणिक कथा: अविवाहित कुंती ने दिया था कर्ण का जन्म और बहा दिया था नदी में
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पौराणिक कथाओं के बारे में बात की जाए तो कई ऐसी कथाएँ हैं जो आप सभी ने सुनी और पढ़ी होंगी. ऐसे में महाभारत और रामायण से जुडी भी कई कथाएं हैं जिन्हे सुनकर एक अलग ही सच्चाई पता चलता है. अब आज हम आपको एक ऐसी ही कथा के बारे में बताने जा रहे हैं जिसे जानकर आप हैरान रह जाएंगे. यह कथा जुडी है अविवाहित कुंती से. आज हम आपको बताने जा रहे हैं कैसे अविवाहित कुंती से कर्ण का जन्म और क्यों बहा दिया था उन्हें नदी में.

 

पौराणिक कथा - 

त्रियाद्विप्र कन्यायां सूतो भवति जातितः. 

वैश्‍यान्मागध वैदेहो राजविप्राड.गना सुतौ..

-10वें अध्याय का 11वां श्‍लोक

मनु स्मृति से हमें ज्ञात होता है कि 'सूत' शब्द का प्रयोग उन संतानों के लिए होता था, जो ब्राह्मण कन्या से क्षत्रिय पिता द्वारा उत्पन्न हों. लेकिन कर्ण तो सूत्र पुत्र नहीं, सूर्यदेव के पु‍त्र थे. इस सूत को कालांतर में बिगाड़कर शूद्र कहा जाने लगा. अंतत: शूद्र कौन, इसका भी अर्थ बदला जाने लगा. कर्ण को शस्त्र विद्या की शिक्षा द्रोणाचार्य ने ही दी थी. कर्ण द्रोणाचार्य से ब्रह्मास्त्र का प्रयोग भी सीखना चाहता था. हालांकि द्रोणाचार्य ने भीष्म को शपथ दी थी कि मैं सिर्फ हस्तिनापुर के राजपुत्रों और अधिकारियों को ही धनुर्विद्या की शिक्षा दूंगा.

महाभारत के कर्ण केवल शूरवीर या दानी ही नहीं थे अपितु कृतज्ञता, मित्रता, सौहार्द, त्याग और तपस्या का प्रतिमान भी थे. वे ज्ञानी, दूरदर्शी, पुरुषार्थी और नीतिज्ञ भी थे और धर्मतत्व समझते थे. वे दृढ़ निश्‍चयी और अपराजेय भी थे. सचमुच कर्ण का व्यक्तित्व रहस्यमय है. कर्ण कुंती के सबसे बड़े पुत्र थे और कुंती के अन्य 3 पुत्र उनके भाई थे. कुंती के कुल चार पुत्र थे. दो पुत्र नकुल और सहदेव माद्री के पुत्र थे.

 

 

कौन्तेयस्त्वं न राधेयो न तवाधिरथः पिता. 

सूर्यजस्त्वं महाबाहो विदितो नारदान्मया..-

(भीष्म पर्व 30वां अध्याय) 

कुंती श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव की बहन और भगवान कृष्ण की बुआ थीं. महाराज कुंतिभोज से कुंती के पिता शूरसेन की मित्रता थी. कुंतिभोज को कोई संतान नहीं थी अत: उन्होंने शूरसेन से कुंती को गोद मांग लिया. कुंतिभोज के यहां रहने के कारण ही कुंती का नाम 'कुंती' पड़ा. हालांकि पहले इनका नाम पृथा था. कुंती (पृथा) का विवाह राजा पांडु से हुआ था. राजा शूरसेन की पुत्री कुंती अपने महल में आए महात्माओं की सेवा करती थी. एक बार वहां ऋषि दुर्वासा भी पधारे. कुंती की सेवा से प्रसन्न होकर दुर्वासा ने कहा, 'पुत्री! मैं तुम्हारी सेवा से अत्यंत प्रसन्न हुआ हूं अतः तुझे एक ऐसा मंत्र देता हूं जिसके प्रयोग से तू जिस देवता का स्मरण करेगी वह तत्काल तेरे समक्ष प्रकट होकर तेरी मनोकामना पूर्ण करेगा.'

इस तरह कुंती को वह मंत्र मिल गया. कुंती तब कुमारी ही थी : एक दिन कुंती के मन में आया कि क्यों न इस मंत्र की जांच कर ली जाए. कहीं यह यूं ही तो नहीं? तब उन्होंने एकांत में बैठकर उस मंत्र का जाप करते हुए सूर्यदेव का स्मरण किया. उसी क्षण सूर्यदेव प्रकट हो गए. कुंती हैरान-परेशान अब क्या करें?सूर्यदेव ने कहा, 'देवी! मुझे बताओ कि तुम मुझसे किस वस्तु की अभिलाषा करती हो. मैं तुम्हारी अभिलाषा अवश्य पूर्ण करूंगा.' इस पर कुंती ने कहा, 'हे देव! मुझे आपसे किसी भी प्रकार की अभिलाषा नहीं है. मैंने मंत्र की सत्यता परखने के लिए जाप किया था.' कुंती के इन वचनों को सुनकर सूर्यदेव बोले, 'हे कुंती! मेरा आना व्यर्थ नहीं जा सकता. मैं तुम्हें एक अत्यंत पराक्रमी तथा दानशील पुत्र देता हूं.'

इतना कहकर सूर्यदेव अंतर्ध्यान हो गए. जब कुंती हो गई गर्भवती, तब लज्जावश यह बात वह किसी से नहीं कह सकी और उसने यह छिपाकर रखा. समय आने पर उसके गर्भ से कवच-कुंडल धारण किए हुए एक पुत्र उत्पन्न हुआ. कुंती ने उसे एक मंजूषा में रखकर रात्रि को गंगा में बहा दिया. वह बालक गंगा में बहता हुआ एक किनारे से जा लगा. उस किनारे पर ही धृतराष्ट्र का सारथी अधिरथ अपने अश्व को जल पिला रहा था. उसकी दृष्टि मंजूषा में रखे इस शिशु पर पड़ी.

अधिरथ ने उस बालक को उठा लिया और अपने घर ले गया. अधिरथ निःसंतान था. अधिरथ की पत्नी का नाम राधा था. राधा ने उस बालक का अपने पुत्र के समान पालन किया.उस बालक के कान बहुत ही सुन्दर थे इसलिए उसका नाम कर्ण रखा गया. इस सूत दंपति ने ही कर्ण का पालन-पोषण किया था इसलिए कर्ण को 'सूतपुत्र' कहा जाता था तथा राधा ने उसे पाला था इसलिए उसे 'राधेय' भी कहा जाता था.

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