धरती से कहीं लुप्त न हो जाए ये जीवन
धरती से कहीं लुप्त न हो जाए ये जीवन
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बारिश के इस मौसम में प्रकृति हर ओर अपनी सुंदरता बिखेरती है। बादलों की ओट से लुकाछिपी करता सूरज और बूंद - बूंद बरसती बूंदे कई बार इंद्रधनुष बना देता है तो हर कोई उसे देखने को उमड़ पड़ता है। यही नहीं सड़कों से वाहन लेकर दूर किसी हाईवे से यात्रा करने पर प्रकृति के सौंदर्य का अहसास होता है। आसपास हर ओर हरियाली ही हरियाली नज़र आती है। इस हरियाली के पास सड़क के करीब मोरों का झुंड नज़र आ जाए तो मन का मयूर हिलोरे लेने लग जाता है। मगर मोर के दर्शन करने को अब लोग तरस जाते हैं। और तो और अब नागपंचमी पर पिलाओ नाग को दूध की आवाज़ भी सुनाई नहीं देती।

दरअसल यह सब हो रहा है। पारिस्थितिकी के बदलने के साथ कई जीवों की प्रजातियां विलुप्ति के कगार पर पहुंच चुकी हैं। बीते कुछ समय में गिर के शेरों की मौत से मामला और गंभीर हो गया है। पहले ही शेर लुप्तप्राय प्रजाति में शामिल हैं जिस पर इनकी मौतों से ये लगातार कम होते जा रहे हैं। जंगल का राजा इंसानी पिंजरे में खुद को असहज महसूस कर रहा है।

आखिर यह सब क्यों हो रहा है। क्या कभी हमने सोचा है। यूं तो प्रकृति लाखों करोड़ों वर्षों में स्वयं में बदलाव लाती है लेकिन मानवीय क्रियाकलापों के चलते धरती पर पारिस्थितिकी और पर्यावरणीय बदलाव तेजी से सामने आ रहे हैं। हालात ये हैं कि हम तेजी से महाविनाश की ओर बढ़ते जा रहे हैं। यह एक गंभीर मसला है जिस पर अभी तक ज़्यादा ध्यान नहीं दिया गया है। मानवीय क्रियाकलाप विभिन्न क्षेत्रों की प्राकृतिक संरचना को ही प्रभावित कर रहे हैं। बीते कुछ वर्षों से बारिश के दौरान केदारनाथ घाटी क्षेत्र में सामने आने वाली बाढ़ और भूस्खलन की परेशानियां इसके ताज़ातरीन उदाहरणों में शामिल हैं। पक्षियों की ऐसी कई प्रजातियां हैं जो वर्तमान में लुप्त हो गई हैं। इन प्रजातियों में गिद्ध और खरमोर भी शामिल हैं। गरूड़ पक्षी जिसे पक्षियों का राजा कहा जाता है आज कहीं भी नज़र नहीं आता।

जबकि हमारे धर्मग्रंथों में गरूड़ को भगवान श्री हरिविष्णु का वाहन बताया गया है। भगवान विष्णु से उनका वाहन जाने - अनजाने छिनकर हमने अपने ही विनाश को न्यौता दे दिया है। खेतों में अधिक उपज और पैदावार की सुरक्षा के लिए हम रासायनिक उर्वरकों और पेस्टिसाईड्स का जिस तरह से उपयोग करते हैं। इसका असर भूमि पर होता है। जब ये पक्षी अपने भोजन के तौर पर फसलों और खेतों में निचले भाग में पनपने वाले कीड़ों को खाते हैं तो उसके साथ केमिकल भी उनके शरीर में पहुंचता है और उनकी मौत हो जाती है। ऐसे में पारिस्थितिकी का एक चक्र ही प्रभावित हो गया है। यही नहीं रसायनों से उपजाई गई इस फसल को जब हम ग्रहण करते हैं तो हमें भी असमय कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है। ऐसे में या तो हमारा जीवनकाल कम हो जाता है या फिर हमें गोलियों का सहारा लेना पड़ता है।

माना जा रहा है कि पारिस्थितिकी से किया जाने वाला मानव का यह प्रयोग एक दिन इतने भयावह परिणाम लेकर सामने खड़ा होगा कि फिर कोई कुछ नहीं कर पाएगा। फिर इस धरती पर जीवन की कल्पना लाखों वर्षों बाद साकार हो सकेगी इसमें कोई संदेह नहीं रह गया है। हालांकि अभी भी कुछ वक्त है जिससे हम मां वसुंधरा को संवारकर अपना जीवन खुशहाल बना सकते हैं लेकिन इसमें सभी को मिलकर प्रयास करने होंगे।

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