फिल्म रिव्यु : वेलकम टू कराची
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भारत और पाकिस्तान के बीच के रिश्ते को दर्शाती एक और फिल्म ‘वेलकम 2 कराची’ भी इसी कड़ी में एक और कोशिश है. ‘वेलकम 2 कराची’ का विचार तो नेक, कटाक्ष और मजाक का था, लेकिन लेखक-निर्देशक की लापरवाही से फिल्म कमजोर हो गई. फिल्म की कहानी है दो लूजर शम्मीर और केदार की जो की एक दुर्घटना की वजह से अनजाने में कराची पहुंच जाते हैं. उन्हें भारतीय जासूस व आतंकवादी समझा जाता है.

दोनों अलग-अलग किस्म के आतंकवादी संगठनों के हाथों इस्तेमाल किए जाते हैं. उनसे कुछ ऐसा हो जाता है कि उन्हें पाकिस्तान में पहचान भी मिलती है. गलतफहमी की इस निर्दोष यात्रा में हंसी के पल आते रहते हैं. दोनों किरदारों की टिपपणियों में कटाक्ष भी रहता है, लेकिन निर्देशक उसे बढ़ाते या गहराते नहीं हैं. वे तुरंत किसी हास्यास्पाद स्थिति का सृजन कर जबरन हंसाने की कोशिश करते हैं.

फिल्म में मोड़ से अधिक मरोड़ हैं, जो एक समय के बाद तकलीफदेह सा हो जाते हैं. अरशद वारसी अपनी काबिलियत से भी फिल्म का नहीं बचा पाते है. ‘यंगिस्तान’ से जैकी भगनानी ने उम्मीद जगाई थी. इस फिल्म में वे सारी उम्मीदे ध्वस्त होती दिखती है. कुलमिलाकर फिल्म एक फूहड़ कॉमेडी बनकर रह जाती है.

 

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